________________
-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
दिट्ठी अनन्त रूवं पञ्जय सुभाव दिट्टि अन्मोयं ।
•
दुग्गड़ गमन सहावं, न्यान सहावेन कम्म विरयति ।। २६५ ।।
अन्वयार्थ - (दिट्ठी विभ्रम रूवं) दृष्टि जब विभ्रम रूप होती है, मिथ्यात्व अज्ञान भ्रम में फंसी होती है तब (जनरंजन जन उत्तं) संसारी जीवों की बातों में, जनरंजन राग में लगी रहती है इससे कर्मों का बंध होता है (उत्साह उच्छाह दिट्टि ससहावं) और जब अपने आत्मा के स्वभाव पर उत्साह व आनंद के साथ लगाई जाती है तब (अतींदी भाव कम्म विरयंति) अतीन्द्रिय भाव पैदा होता है, आत्मस्थ परिणति होने से कर्मों की निर्जरा होती है।
(दिट्ठी अनंत रूवं ) यह दृष्टि अनंत रूप है, अनेक मार्गों में जाती है (जनरंजन कल सहाव संदिट्ठी) यह दृष्टि लोगों के रंजायमान करने में व शरीर के स्वभाव में अधिकतर लगी रहती है, अज्ञान रूप होने से कर्मबंध होता है (न्यान सहाव स उत्तं) वही दृष्टि जब इस लौकिक प्रपंच से हटकर ज्ञान स्वभाव आत्मा में लगती है तब (अप्प सहावेन कम्म विरयंति) आत्म स्वभाव से कर्मों से छुटकारा हो जाता है।
(दिट्ठी मन उपपत्ती) जब दृष्टि मन के संकल्प-विकल्पों में जाती है (दिट्टी दिइ अभाव भय उत्तं) तब यह दृष्टि भय सहित नाशवान पर्याय की तरफ ही देखा करती है जिससे दुःख चिंता भय पैदा होता है (न्यान सहाव उवन्नं) जब ज्ञान स्वभाव पैदा होता है अर्थात् जब अपने ज्ञान स्वभाव आत्मा को देखती है (अप्प सहावेन दुष्य विरयंति) तब आत्मा के स्वभाव में लीन होने से सब दुःख भय चिंतायें विला जाती हैं ।
(दिट्ठी नंत विषेसं) दृष्टि की अनंत विशेषतायें हैं ( अन्मोयं पज्जाव भाव सभावं) जब पर्याय की ओर देखती है उसका आलम्बन लेती है तब नाना प्रकार के भावों में उलझी रहती है जिससे शुभाशुभ कर्मों का बंध होता है (न्यान सहावं सुद्धं) जब ज्ञान स्वभाव में शुद्ध होती है अर्थात् शुद्ध ज्ञान स्वभावी आत्मा में लीन होती है (दिट्ठी विषेस कम्म विरयंति) यही विशेष दृष्टि कर्मों की निर्जरा का कारण है।
(दिट्ठी अनन्त रूवं ) जब दृष्टि अनंत रूपी पदार्थों में उलझती है (पज्जय सुभाव दिट्टि अन्मोयं) तब यह पर्याय स्वभाव का ही आलम्बन रखती है अर्थात् संसार, शरीर, मन, इन्द्रियाँ भावादि में ही उलझी रहती है ( दुग्गइ गमन
器
१६४
गाथा २६१-२६५ *****
सहावं) यही दुर्गति गमन का स्वभाव है अर्थात् इसी से संसार में जन्म-मरण और दुर्गति के दुःख भोगना पड़ते हैं (न्यान सहावेन कम्म विरयंति) ज्ञान स्वभाव में लीन होने से कर्मों की निर्जरा होती है।
विशेषार्थ दृष्टि का खेल ज्ञान-अज्ञान पर आधारित है, अपने स्वरूप का ज्ञान होने से सम्यक्दृष्टि कहलाती है। अपने स्वरूप का अज्ञान होने से मिथ्यादृष्टि कहलाती है। मिथ्यात्व अज्ञान सहित दृष्टि विभ्रम रूप में फंसी संसारी जीवों के जनरंजन राग में लगी रहती है। इसके अनेक रूप होते हैं, संसार, शरीर, अनंत जीव, मन आदि के चक्कर में भय, शल्य, शंका, चिंता, दु:ख, संकल्प - विकल्प आदि शुभाशुभ भावों में लगे रहने से अनंत कर्मों का बंध होता है जिससे संसार परिभ्रमण और दुर्गति के दुःख भोगना पड़ते हैं ।
मन का स्वरूप संकल्प-विकल्प मय है, जब दृष्टि मन के अनेक विचारों में लगी रहती है तब मन में इस नाशवान शरीर का ही विचार आता है। शरीर के बने रहने, पांचों इन्द्रियों के भोग भोगने के भाव होते हैं, शरीर रोगी न हो जाये, मृत्यु न आ जाये, ऐसा भय बना रहता है। संसारी प्रपंच, धन वैभव, कुटुम्ब परिवार से संबंधित, पाप, विषय-कषाय रूप शुभाशुभ भावों से अनंत कर्मों का बंध होता है। शरीर के सुखों में आनंद मानने वाली दृष्टि राग-द्वेष, मोह के कारण तीव्र कर्मों का बंध कर जीव को दुर्गति ले जाती है।
जब ज्ञानी जीव सर्व प्रकार की शंकाओं को व भ्रमभाव को हटाकर अपने ज्ञानानंद स्वभाव की पहिचान करके उसके विचार में बड़ा उत्साहित होता है, आनंद मानता है तब यह दृष्टि इन्द्रियों से अतीत आत्मा के स्वरूप में एकाग्र होती है। यही अतीन्द्रिय भाव ध्यान अवस्था कर्मों की निर्जरा में कारण है।
·
जो ज्ञानी इस उपयोग (दृष्टि) को सांसारिक प्रयत्नों से हटाकर ज्ञान स्वभावधारी शुद्ध आत्मा में लगाता है तब यह विशेष ज्ञानोपयोग, ध्यान की स्थिति, ज्ञान स्वभाव में लीनता से कर्मों की निर्जरा होती है, यही मुक्ति मार्ग है । दृष्टि का विषय द्रव्य स्वभाव है, इसमें तो अशुद्धता की उत्पत्ति ही नहीं है ।
समकिती को किसी एक भी अपेक्षा से अनंत संसार का कारण रूप मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी कषाय का बंध नहीं होता जबकि मिथ्यादृष्टि को निरंतर मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी सहित कर्म का बंध होता है परंतु इस पर
*