SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 萃克·章返京惠章些常常 ****** श्री उपदेश शुद्ध सार जी लीनता होने से अनादि के संसार दावानल का नाश होता है। भाई ! तुमने यदि पराश्रय बुद्धि न छोड़ी तथा स्व तत्त्व पर दृष्टि न डाली तो तेरी विद्वत्ता क्या काम की ? तेरा शास्त्र ज्ञान किस काम का ? विद्वत्ता तो उसे कहें कि जिससे स्वाश्रय कर निज हित सधे । इसी की विशेषता रूप आगे गाथा कहते हैं सुरं च सुर्य विपनं, सूषम सभाव ममल न्यानं च । पज्जय सहाव रुचियं, न्यानं आवरन नरय संजुत्तं ।। ३३१ ॥ सुरं च सूषम रूवं, सुरं च संसार विषय विरयंमि । जदि पज्जय सरन संजुतं, न्यानं आवरन थावरं परं ।। ३३२ ।। अन्वयार्थ - (सुरं च सुयं षिपनं) यह सूर्य समान ज्ञान स्वयं क्षायिक भाव है (सूषम सभाव ममल न्यानं च) यह इन्द्रियों से अगोचर अतीन्द्रिय सूक्ष्म स्वभाव है और ममल ज्ञानमय है (पज्जय सहाव रुचियं) यदि वह ज्ञान शरीरादि पर्याय में रुचिवान होता है तो (न्यानं आवरन नरय संजुत्तं ) ज्ञानावरण का बंध होकर नरक में जाता है। (सुरं च सूषम रूवं) स्वर, वाणी द्वारा प्रगट आत्मा सूक्ष्म स्वरूप है, इन्द्रियातीत है, अनुभव गम्य है (सुरं च संसार विषय विरयमि) वाणी में कहा गया है कि संसार के विषय भोगों से विरक्त रहो (जदि पज्जय सरनि संजुत्तं) यदि पर्याय के प्रवाह में रत होते हो तो (न्यानं आवरन थावरं पत्तं) ज्ञानावरण का बंध होकर स्थावर गति में जाना होगा । विशेषार्थ वाणी द्वारा प्रकाशित सूर्य समान ज्ञान स्वयं क्षायिक भाव है जो सर्व ज्ञानावरण के क्षय से प्रगट होता है। ज्ञान से ही ज्ञान की पूर्णता होती है, आत्मा इंद्रियों से अगोचर अतीन्द्रिय सूक्ष्म स्वभाव है, जो ममल स्वभावी ज्ञान मात्र चेतन सत्ता है, यदि इसकी दृष्टि शरीरादि पर्याय में रुचिवान होती है, पर्याय में ही लगी रहती है तो ज्ञानावरण से नरक के दुःख भोगना पड़ते हैं । जिनेन्द्र परमात्मा की दिव्यध्वनि में आया है कि आत्मा अति सूक्ष्म स्वरूप है, इंद्रियातीत है, अनुभव गम्य है, यह संसारी विषय भोगों से विरत अपने स्व चतुष्टय अतीन्द्रिय आनंद का भोक्ता है। ज्ञान उसे ही कहते हैं जो स्वाधीनता के सन्मुख हो व पराधीन असार १९३ गाथा ३३१,३३२ ****** संसार से विमुख हो परंतु जिसका ज्ञान मिथ्या हो जाता है वह पर्याय रत हो जाता है। मैं का ऐसा अहंभाव उसके ऊपर छा जाता है जिससे वह तीव्र कषाय सहित हो जाता है, जिससे ज्ञानावरण का बंध होकर वह नीच गोत्र व स्थावर योनि में चला जाता है। जगत में पूर्णता को प्राप्त परमात्मा अनंत हैं। अंतरात्मा साधक जीव भी अनादि से ही हैं तथा बहिरात्मा भी अनादि से हैं। जगत में कोई भी पहले या बाद में नहीं हैं, सभी समान रूप से अनादि अनंत हैं। एक जीव की अपेक्षा से तो संसार का नाश व मोक्ष का प्रारंभ हो सकता है किंतु जगत में मोक्ष का नया आरंभ नहीं हुआ है, अनादि से संसार में रुलने वाले जीव हैं, वैसे ही साधक जीव तथा परमात्म दशा को प्राप्त जीव भी अनादि से ही हैं । द्रव्य दृष्टि की अपेक्षा से ऐसा कहा जाता है कि आत्मा में विकार नहीं है, विकार तो पुद्गल कर्मादि का कार्य है परंतु ऐसी द्रव्यदृष्टि उसे होती है जिसे पर्याय की स्वतंत्रता का भान हो। अभी तक तो जिसने पर्याय को ही स्वाधीन नहीं जाना, उसे तीनों काल की पर्याय के पिंड रूप द्रव्य की दृष्टि कैसे हो ? पर्याय में विकार है उन्हें कर्मों ने नहीं करवाये हैं, वे मेरे अपराध के कारण से हैं परंतु ऐसा माने कि कर्म ही विकार कराते हैं तो उस जीव को पर्याय का भी भान नहीं है तथा जो पर्याय में ही रत रहता है वह अज्ञानी ज्ञानावरण कर्म का बंधकर नरकादि तथा स्थावर योनियों में जाता है। निरपेक्ष स्वभाव के भान बिना, निमित्त का यथार्थ ज्ञान नहीं होता, स्वभाव स्व पर प्रकाशक है, उसमें स्व के ज्ञान बिना, पर का भी ज्ञान नहीं होता । उपादान स्वतंत्रता के ज्ञान बिना निमित्त का ज्ञान नहीं होता । निश्चय बिना व्यवहार का ज्ञान नहीं होता, जैसे त्रिकाली द्रव्य स्वतंत्र निरपेक्ष है वैसे ही उसकी समय- समय की पर्याय भी निरपेक्ष व स्वतंत्र है। समय-समय की पर्याय अपने कारण से ही होती है, जो ऐसी पर्याय में ही लीन रहता है वह अज्ञानी ज्ञानावरण का बंधकर संसार में रुलता है। पर्याय के आश्रय से कभी मुक्ति नहीं होती, द्रव्य स्वभाव के आश्रय से ही मुक्ति होती है। ज्ञानी की दृष्टि तो संसार से छूटने की है अत: वह राग रहित निवृत्त स्वभाव की मुख्य भावना व आदर में सावधानी से प्रवृत्त रहता है ; परंतु जो ऐसा मानता है कि संयोग पलटा दूँ तथा वर्तमान पर्याय के कार्य करने योग्य हैं उसके तो श्रद्धान में ही स्थूल विपरीतता है।
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy