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克-華克·章惠尔惠尔罕
*-*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
विरयंतु) अपनी दृष्टि अदृश्य आत्मा पर ले जाता है इसी से कर्मों का क्षय होता है।
विशेषार्थ दृष्टि परिवर्तन का अर्थ ज्ञान, श्रद्धान की मान्यता का पलट जाना, इसी को उपयोग कहते हैं। जहाँ तक उपयोग (दृष्टि) पांचों इंद्रियों के विषयों में लिप्त है, वहाँ तक कर्म बंध है और वह संसार परिभ्रमण का कारण है । सम्यक दृष्टि ज्ञानी जिनवाणी का भले प्रकार अभ्यास करता है, चिंतन-मनन करता है और जो पांचों इन्द्रियों से नहीं जाना जा सकता ऐसे अदृश्य आत्मा पर विश्वास लाकर, सच्चा श्रद्धान, ज्ञान करके उसी का अनुभव करता है तब कर्मों की निर्जरा और मुक्ति की प्राप्ति होती है, यही दृष्टि परिवर्तन है ।
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सम्यक दृष्टि को जैसे अखंड की दृष्टि है वैसे ही खंड-खंड ज्ञान ज्ञेयरूप है । एक ज्ञान पर्याय में दो भाग हैं, जितना स्वलक्षी ज्ञान है वह सुख रूप है • और जितना परलक्षी परसत्तावलंबी ज्ञान है वह दुःख रूप है। पर की ओर का श्रुत का ज्ञान इन्द्रिय ज्ञान है वह पर ज्ञेय है, पर द्रव्य है। देव, गुरु तो परद्रव्य हैं परंतु इन्द्रिय ज्ञान भी पर द्रव्य है। आत्मा का ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान है। धर्मी जीव ने सहज तत्त्व पर दृष्टि रखी है उसके लिये तो वह वीतरागता का घर है, इसी से पूर्व कर्म बंधोदय क्षय होते हैं।
अनादि निज अज्ञान से जीव मिथ्यादृष्टि है, अपने स्वरूप का अनुभूतियुत ज्ञान होने से सम्यकदृष्टि होता है यही दृष्टि परिवर्तन है।
मिथ्यादृष्टि की इच्छा विषय ग्रहण की है, उससे वह देखना जानना चाहता है। जैसे- वर्ण देखने की, राग सुनने की, अव्यक्त को जानने की इत्यादि इच्छा होती है, वहाँ अन्य कोई पीड़ा नहीं है परंतु जब तक देखता जानता नहीं है तब तक महा व्याकुल होता है, इस इच्छा का नाम विषय है । वहां ज्ञान, दर्शन की प्रवृत्ति इंद्रिय मन के द्वारा होती है इसलिये यह मानता है कि यह त्वचा, रसना, नासिका, नेत्र, कान, मन, मेरे अंग हैं, इनके द्वारा मैं देखता जानता हूँ ऐसी मान्यता से इन्द्रियों में प्रीति पाई जाती है तथा मोह के
आवेश से उन इन्द्रियों के द्वारा विषय ग्रहण की इच्छा होती है और उन विषयों का ग्रहण होने पर उस इच्छा के मिटने पर निराकुल होता है तब आनंद मानता है। जैसे- कुत्ता हड्डी चबाता है उससे अपना रक्त निकले, उससे स्वाद लेकर ऐसा मानता है कि यह हड्डियों का स्वाद है, उसी प्रकार यह जीव
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गाथा २५९*-*-*-*-*-*-*
विषयों को जानता है, उससे अपना ज्ञान प्रवर्तता है, उसका स्वाद लेकर ऐसा मानता है कि यह विषय का स्वाद है, सो विषयों में तो स्वाद है नहीं। स्वयं ही इच्छा की थी उसे स्वयं ही जानकर स्वयं ही आनंद मान लिया परंतु मैं अनादि अनंत ज्ञान स्वरूप आत्मा हूँ, ऐसे केवलज्ञान स्वरूप का तो अनुभवन है नहीं तथा मैंने नृत्य देखा, राग सुना, फूल सूंघे, पदार्थ का स्वाद लिया, पदार्थ का स्पर्श किया, शास्त्र पढ़ा जाना, इस प्रकार ज्ञेय मिश्रित ज्ञान का अनुभवन है उससे विषयों की ही प्रधानता भासती है, यही सब कर्म बंध और संसार परिभ्रमण का कारण है ।
जो वास्तव में ज्ञानात्मक आत्मा रूप एक स्व को नहीं भाता वह अवश्य ज्ञेयभूत अन्य द्रव्य इन्द्रियादि का आश्रय करता है और उसका आश्रय करके ज्ञानात्मक आत्मज्ञान से भ्रष्ट वह स्वयं अज्ञानी होता हुआ मोह करता है, राग करता है अथवा द्वेष करता है, ऐसा मोही, रागी-द्वेषी होता हुआ कर्मबंध को प्राप्त होकर संसार में परिभ्रमण करता है ।
जो जीव जिनवचनों का श्रवण मनन कर दृष्टि परिवर्तन होने से ऐसा जानता है कि मैं केवलज्ञान और केवलदर्शन स्वभाव रूप से ज्ञायक एक टंकोत्कीर्ण स्वभाव हूँ, मेरा परद्रव्यों के साथ स्वस्वामीपने आदि का कोई सम्बंध नहीं है, वह कर्मों से मुक्त होता हुआ मुक्ति निर्वाण पाता है। तृतीय - दृष्टि अधिकार
प्रश्न दृष्टि किसे कहते हैं ?
समाधान - चेतना की क्रियावती शक्ति, जो दर्शन ज्ञान रूप है इसको दृष्टि कहते हैं, यही उपयोग है। यही जड़ कर्म प्रकृति में जुड़ा होने से जीव कहलाता है । यही दृष्टि जब तक अपने सत्स्वरूप को नहीं जानती और यह मानती है कि यह शरीर ही मैं हूँ, यह शरीरादि मेरे हैं, मैं इनकी कर्ता हूँ तब तक मिथ्यादृष्टि अज्ञानी संसारी है। जब इसको भेदज्ञान पूर्वक स्व-पर का यथार्थ निर्णय निज शुद्धात्मानुभूति हो जाती है, तब यह सम्यक्दृष्टि ज्ञानी कहलाती है।
ज्ञान, श्रद्धान, मान्यता, प्रतीति जानने देखने की शक्ति, जीव, • उपयोग सब दृष्टि को ही कहते हैं।
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प्रश्न दृष्टि का कार्य और गुण-दोष क्या है ? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं.
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