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श्री उपदेश शुद्ध सार जी
गाथा-२५९-----
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* देखा गया है कि वे (अनिस्ट संजोय सरनि संसारे) आत्मा को अनिष्टकारी
विषय भोगों का संयोग कराती हैं और उनमें तन्मय कराकर जीव को संसार में * भ्रमण कराती हैं (जिन वयनं पिच्छंतो) जो सम्यक्दृष्टि जिनवाणी पर श्रद्धान * करता है अर्थात् जिन वचनों को सुनता समझता है, यथार्थ प्रतीति करता है
वह (अतींदी भाव इंदि विरयंति) आत्मा के अतीन्द्रिय आनंद का भोग करता हुआ इंद्रिय के सुखों से विरक्त रहता है, छूट जाता है।
(जं इंदी च सहावं) इन्द्रियों के सुख में रत होने का जो स्वभाव है (तं जानेहि सयल मोहंध) उसको सर्व प्रकार से दर्शन मोह का उदय जानो जो अज्ञान मोह में जीव को अंधा करता है (जिन उवएस लहंतो) जो श्री जिनेन्द्र के उपदेश को प्राप्त करता है (अतींदी सहकार कम्म विरयंति) वह अतीन्द्रिय आनंद के साधन से कर्मों का क्षय करता है।
विशेषार्थ - पांचों इन्द्रियों के विषय भोग जीव को अनिष्टकारी संसार परिभ्रमण के कारण हैं, यह इन्द्रिय जन्य सुख पराधीन है । इच्छित वस्तु मिले व भोगने योग्य परिस्थिति हो तब इंद्रिय सुख भोगा जा सकता है परंतु ऐसा होता नहीं है, इसमें कर्मोदय बाधा बनता है। एक दिन पदार्थों के वियोग व शरीर के मरण से सब नाश हो जाता है तथा रागभाव के बिना इंद्रिय भोग नहीं होता इसलिये यह बंध का कारण है, आकुलतामय है इसलिये विषम है अतएव यह इंद्रिय सुख, दु:ख रूप ही है। यह इन्द्रियाँ ही आत्मा की शत्रु हैं क्योंकि कषाय के वश होकर प्राणी इंद्रियों के विषयों में प्रवृत्ति करते हैं जिससे संसार परिभ्रमण और दुःख भोगना पड़ता है।
सम्यक्दृष्टि जीव जिनवाणी के उपदेश पर पूर्ण श्रद्धा करता है, वह आत्मा के अतीन्द्रिय आनंद को भोगता है और इन्द्रिय सुख को झूठा व कल्पित सुख जानकर इससे विरक्त हो जाता है।
अतीन्द्रिय आनंद आत्मा का सच्चा सुख है। इंद्रियां शरीराश्रित जड़ हैं इनमें न सुख है, न आनंद है, अज्ञानी मिथ्यादृष्टि इनमें सुख की कल्पना करता है। दर्शनमोह से अंधा जीव इन्द्रियों के सुखों को उपादेय जानकर इनमें तन्मय रहता है जिससे अनंत कर्मों का बंध होता है तथा संसार में जन्म-मरण करना पड़ता है । सम्यकदृष्टि जीव इस इंद्रिय सुख को झूठा नाशवान समझकर जिनवाणी के प्रताप से तत्त्वों को जानकर आत्मा के अतीन्द्रिय आनंद में मगन रहता है, आत्मानंद की मगनता ही कर्मों की निर्जरा
करती है इससे परमानंद मयी मोक्ष की प्राप्ति होती है।
साधक जीव-पर द्रव्यरूप भावकर्म, द्रव्यकर्म और शरीरादि नोकर्म के प्रति उदासीन रहता है क्योंकि शुद्ध स्वरूप का अनुभव होने से उसे शुद्ध चैतन्य ही उपादेय है, जब से ध्रुव स्वभाव को ध्यान में लेकर आत्म अनुभव हुआ तब से वह अतीन्द्रिय आनंद का वेदक हो गया, जिनवाणी के द्वारा अपने पूर्णानंद परमात्म स्वरूप को जानने से निरंतर उसी का स्मरण ध्यान करता है। जब ध्यानी के अतीन्द्रिय आनंद का अनुभव होता है तब ही कर्मों की निर्जरा होती है।
सर्वज्ञ जिनेन्द्र देव ने जिस आत्मा को ध्रुव कहा है उसका जो जीव अवलंबन ले उसे उस धुव स्वभाव में से शुद्धता प्रगट होती है, उसको आत्मा शुद्ध रूप से उल्लसित हुई, ऐसा कहने में आता है। जैसे- अनादि अज्ञानवश, इन्द्रिय विषय सुख में सुख है ऐसे मिथ्यात्व का अनुभव है, दु:ख का अनुभव है, वैसे ही ज्ञानी का अतीन्द्रिय आनंद अमृत ही भोजन है।
जैसे-खीर के स्वाद के आगे ज्वार बाजरा की रूखी-सूखी रोटी अच्छी नहीं लगती, वैसे ही जिन्होंने प्रभु आनंद स्वरूप है, ऐसा अतीन्द्रिय आनंद का स्वाद लिया है उन्हें जगत की किसी भी वस्तु में रुचि नहीं होती, रस नहीं आता, एकाग्रता नहीं होती। निज स्वभाव के अतीन्द्रिय आनंद में डूबने पर सब कर्मादि क्षय हो जाते हैं और सब संसार, शरीर, संयोग छूट जाता है। सम्यक्दृष्टि को पांच इन्द्रियों के विषय के अशुभ राग होते हैं परंतु वे उनमें से हटकर ध्यान में बैठते ही निर्विकल्प रूप से अतीन्द्रिय आनंद में डूब जाते हैं, यह सब जिनवाणी की सच्ची श्रद्धा और दृष्टि परिवर्तन की महिमा है।
प्रश्न- यह दृष्टि परिवर्तन क्या है?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - दिस्टी दिस्टतु इंदी, दिस्टी संसार सरनि सभावं । जिन वयनं पिच्छंतो, दिस्टि अदिस्टि कम्म विरयंतु ॥ २५९॥
अन्वयार्थ - (दिस्टी दिस्टतु इंदी) दृष्टि के सामने पांचों इन्द्रियाँ ही दिखलाई पड़ती हैं (दिस्टी संसार सरनि सभावं) पांचों इन्द्रियों की ओर दृष्टि है सोही संसार के मार्ग को बढ़ाने वाली है (जिन वयनं पिच्छंतो) जो सम्यक्दृष्टि
जिनवाणी का मनन करता है, सुनता, समझता है वह (दिस्टि अदिस्टि कम्म १६१
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16--12-2-
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