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________________ गाथा-२५१-२५३*** * * ** * KEE E- 32 * ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी * रूपी विष के सेवन से अनंत जन्मों में दु:ख उठाना पड़ता है। इन्द्रियों के द्वारा * होने वाला भोग सुख-सुख सा झलकता है पर वह सच्चा सुख नहीं है। * आत्मा का अतीन्द्रिय सुख ही सच्चा सुख है। इन इन्द्रिय सुख के भोगने से कर्मों का बंध होता है जिससे बहुत दु:ख प्राप्त होता है। इसी बात को आगे गाथा में कहते हैं - भोगंभोगसुभावं, विकहा विसन विषयभाव उवभोग। आलापं असुद्ध भावं, दर्सन मोहंध अनित भोगं च ॥ २५१॥ भोग नंत विसेष, अन्यानं तव वय किरिय विकह संजुत्त। वयनं न सुद्ध वयनं, अनिस्ट रूवेन अन्ध अन्धानि ॥२५२॥ अन्ध अन्ध सुभावं,दर्सन मोहंध दुव्य वीयम्मि। दुष्यं अनन्त नन्तं, संसारे नरय निगोय वासम्मि॥२५३॥ अन्वयार्थ - (भोग भोग सुभावं) भोगों को भोगते हुए भोग करने का ऐसा स्वभाव पड़ जाता है (विकहा विसन विषय भाव उवभोगं) कि चार विकथा, ॐ सात व्यसन, पांचों इन्द्रियों के विषय सम्बंधी भावों का उपभोग किया करता है (आलापं असुद्ध भावं) अशुद्ध भावों को लिये हुए बकवाद करता है (दर्सन मोहंध अनित भोगं च) दर्शन मोहांध अज्ञानी इन मिथ्या क्षणभंगुर नाशवान भोगों में आसक्त रहता है। (भोगं नंत विसेष) भोग संबंधी भावों के अनंत और कई विशेष भेद हैं (अन्यानं तव वय किरिय विकह संजुत्तं) भोगों की लालसा से अज्ञानी लोग तप करते हैं,व्रत पालते हैं, क्रिया साधते हैं, विकथा में राजा-महाराजा,इन्द्र, चक्रवर्ती के विषय भोग राज्य वैभव आदि की कथायें कहते हैं और उसका रस लेते हैं (वयनं न सुद्ध वयनं) वे कभी शुद्धात्मा और वैराग्य की चर्चा नहीं करते, ऐसी बात ही नहीं बोलते (अनिस्ट रूवेन अन्ध अन्धानि) वे अपना अनिष्ट करते हुए स्वयं अंधे रहते हुए अन्य अंधों को मार्ग बताते हैं। (अन्धं अन्ध सुभावं) अंधों का स्वभाव ही अंधा होता है, उन्हें कुछ दीखता ही नहीं है (दर्सन मोहंध दुष्य वीयम्मि) इसी प्रकार जो दर्शन मोह से अंधा है वह हित-अहित, धर्म-अधर्म का विचार न करता हुआ भोगों में लिप्त होकर दु:ख का बीज बोता है (दुष्यं अनन्त नन्तं) अनंतानंत दु:ख भोगता है (संसारे नरय निगोय वासम्मि) संसार चक्र में नरक निगोद में वास करता है। विशेषार्थ- जिनको भोगों के प्रति तीव्र आसक्ति हो जाती है वे स्त्रीकथा, भोजनकथा, देश-विदेश के भोग व राजाओं के भोग की कथाओं में रंजायमान रहते हैं। जुआं खेलना, मांसाहार, मद्यपान, चोरी, शिकार, वेश्या गमन व पर स्त्री सेवन इन सात व्यसनों की आदत पड़ जाती है, अज्ञानी जीव रात-दिन इन्हीं भावों में उलझे रहते हैं। पांचों इंद्रियों के भोगों की भावना नित्य रहती है। परस्पर में हास्य कौतूहल द्वारा अशुचि भावों का प्रदर्शन और वार्तालाप करते रहते हैं। अज्ञानी मिथ्यादृष्टि दर्शन मोहांध इन क्षणभंगुर नाशवान भोगों में ही लगा रहता है। भोगों की तृष्णा मन में रखकर भविष्य में भोग प्राप्त हों तथा वर्तमान में भी अच्छा भला खाने पीने को मिले, मान सम्मान हो,खूब भोग भोगें, इस अभिप्राय से अज्ञान पूर्वक उपवासादि तप करते हैं, मुनि व श्रावक के व्रत पालते हैं, भोजनादि क्रिया और पूजा पाठ में लगे रहते हैं। राजा महाराजा के भोग, इन्द्र चक्रवर्ती पद आदि के लिये कथा पुराण पढ़ते हैं, उनकी विभूति पुण्य के ऐश्वर्य का वर्णन करते हैं। न कभी आत्मज्ञान वर्द्धक चर्चा करते हैं,न वैराग्य की चर्चा करते हैं, हमेशा भोगों के भावों में रत रहते हुए आप भी संसार में डूबते हैं और दूसरे जीवों को भी संसार में डुबाते हैं। __ स्वयं अज्ञान अंधकार में अंधा रहते हुए दूसरे अंधों का मार्गदर्शन करते हैं। ऐसे दर्शन मोह से अंधे जीव दु:ख के बीज बोते हैं। वह अज्ञानी कुत्सित आचरण करके घोर पाप बांधता है। अनंतानंत दु:ख भोगने के लिये नरक निगोद में वास करता है और संसार परिभ्रमण में ही फंसा रहता है। जो आत्म सन्मुख होते हैं, वह विकार से विमुख हुए बिना नहीं रहते। राग से, पुण्य से अथवा पर से चैतन्य की एकता नहीं, ऐसा पृथकता रूप भेदज्ञान तो न करे और संसार शरीर भोगों में रत रहे, वह दर्शन मोहांध अज्ञानी है। विषय भोगों का सेवन बिना राग के नहीं होता, राग पूर्वक भोगों के भावों का रस लेना, उनकी चर्चा करना भी अशुभ कर्म बंध, दु:ख और दुर्गति का कारण है। दया, दान, भक्ति,प्रोषध, प्रतिक्रमण, सामायिक आदि क्रिया कांड में कुशलता, रूखा आहार लेना, साधु त्यागी आदि का भेष बनाना, EMORE
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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