SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 159
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी सभी क्रियायें राग व पर की हैं। जो केवल राग की क्रियाओं में ही संतुष्ट हो जाते हैं कि मैंने बहुत किया व कर रहा हूँ, उन्हें इन पुण्य-पाप से रहित निष्कर्म भूमिका की प्राप्ति नहीं होती, ज्ञान स्वभावी आत्मा की दृष्टि नहीं होती तथा यह सब क्रियायें वर्तमान या भविष्य के सुख भोग के अभिप्राय से की जाती हैं तो संसार के दुःख, दुर्गति और पापबंध का ही कारण हैं। जो क्षण-क्षण में अनुकूलता-प्रतिकूलता के संयोगों में हर्ष-शोक का वेदन किया करते हैं, उनके कषाय की मंदता भी नहीं है। उनको आत्मा कैसा है ? ऐसी जिज्ञासा होने का भी अवकाश नहीं है क्योंकि उनकी क्षणिक की रुचि छूटती नहीं है। जिसे राग घटने के प्रसंग की ही खबर नहीं है, उसके कभी राग का अभाव नहीं होता। राग से ही भोगों के भाव होते हैं, यही संसार परिभ्रमण का कारण है । - प्रश्न- जीव को संसार शरीर भोगों में फंसाने वाला कौन है ? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंउत्पन्न मन चवलं, अनन्त विषेसेन पजांब संदिहं । चेयन नन्द सरू, अप्य सहावेन कम्म चिपिऊनं ।। २५४ ।। मन चवलं उववन्नं, संसार सुभाव पर्जाव अनुरतं । अप्पसरूवं पिच्छदि, पर्जय विरतस्य कम्म चिपिऊनं ।। २५५ ।। अन्वयार्थ ( उत्पन्नं मन चवलं) जब चंचल मन उत्पन्न होता है (अनन्त विषेसेन पर्जाव संदिट्टं) यह अनंत विशेषता वाली पर्याय को ही देखता है अर्थात् मन शरीरादि संसार संयोगों में रत रहता है (चेयन नन्द सरूवं ) आत्मा आनंद स्वभावी है (अप्प सहावेन कम्म षिपिऊनं) जब मन आत्म स्वभाव में रत होता है तब कर्मों का क्षय होता है। - (मन चवलं उववन्नं) मन की चंचलता जब पैदा होती है (संसार सुभाव पर्जाव अनुरत्तं) तब मन संसार शरीर भोगादि पर्यायों में लवलीन रहता है, इसी से अनंत कर्मों का बंध होता है (अप्प सरूवं पिच्छदि) जो ऐसे मन को रोककर अपने आत्म स्वरूप का अनुभव करता है (पर्जय विरतस्य कम्म षिपिऊनं) और शरीरादि पर्याय से विरक्त होता है, उसी के कर्मों की निर्जरा होती है। . विशेषार्थ - मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है। कर्मों के 器 १५९ गाथा २५४,२५५**** बंध का कारण संकल्प-विकल्प रूप यह मन है। यह मन इन्द्रियों के विषयों में रंजायमान होकर शरीर भोग संबंधी अनंत भाव किया करता है। मिथ्यादृष्टि का मन बड़ा चंचल होता है, वह वर्तमान शरीर में आसक्त होता है; इसीलिये संसार में भ्रमणकारी भावी पर्यायों में भी आसक्त रहता है। संसार के सुख भव भव में प्राप्त हों, यही उसके मन की आशा रहती है, इसी से संसार परिभ्रमण होता है । जो कोई इस मन को रोककर आनंद स्वभावी निज आत्मा में तल्लीन होते हैं उनके वीतराग भावों से कर्मों की निर्जरा होती है, सम्यक्दृष्टि जीव संसार से, शरीर से व भोगों से उदासीन होकर निज आत्मा में एकतान होकर अनुभव करता है तब उसके कर्मों की निर्जरा होती है, यही मुक्ति का मार्ग है। जीव के अज्ञान का भ्रम ही मन है, जो नाना प्रकार के संकल्प-विकल्प, विचार करता है, इसी के कारण जीव संसार शरीर भोगों में फंसा रहता है। जब ज्ञान का जागरण होता है, वस्तु स्वरूप का ज्ञान होता है तब यह मन इन संसार शरीर भोगों से उदासीन होकर आत्म स्वरूप का चिंतन-मनन करता है जिससे समस्त कर्म बंध से छूटकर मुक्त हो जाता है। हिंसादि पाप व अभक्ष्य भक्षण के पाप से भी मिथ्यात्व का पाप अनंत गुणा भयंकर है, कुदेवादि को सुदेव मानना, कुगुरु को सुगुरु मानना, कुशास्त्र को शास्त्र मानना, पर से अपना भला-बुरा मानना, पर पर्याय को अपना मानना आदि प्रकार की मिथ्या मान्यता मांस भक्षण व शिकार करने के पाप से भी अधिक महान पाप रूप है। मान्यता ही मन की जननी है। जैसी मान्यता होती है वैसा ही मन होता है। अज्ञान मिथ्यात्व रूप मान्यता से मन संसार शरीर भोगों में फंसाता है और सम्यक् ज्ञान से मन आत्म स्वरूप का चिंतन-मनन कर मुक्ति पाता है। किसी को सन्निपात हुआ हो तो वह कभी तो ठीक बोले व कभी उल्टा सीधा बोलने लगता है, उसी प्रकार अज्ञानी कभी तो ठीक जाने व कभी यथार्थ रूप से न जाने; परंतु अज्ञानी की श्रद्धा सच्ची न होने से उसका ज्ञान कभी सच्चा नहीं होता, वह निश्चय निर्धारण द्वारा श्रद्धा पूर्वक कुछ भी यथार्थ नहीं जानता । मिथ्यादर्शन के कारण मन अप्रयोजन भूत विषयादि में जागता है परंतु प्रयोजनभूत तत्त्व के निर्णय में नहीं लगता है। *
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy