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गाथा-२४९,२५०
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- श्री उपदेश शुद्ध सार जी * शरीर प्रत्यक्ष अपवित्र हाड़-मांस, मल-मूत्र का पिंड नाशवान जलने गलने
वाला है,जड़ अचेतन है इसको स्थिर व सत्य मानता है, अपने आत्म स्वरूप की तरफ दृष्टि नहीं रखता है इसलिये वह अपना बहुत बुरा अनिष्ट करता है।
शरीर संबंधी भावों में लिप्तता के कारण वह जिनेन्द्र के वचन, जिनवाणी * को न सुनता है, न पढ़ता है, न जिन वचनों का श्रद्धान करता है । आत्मा
शुद्धात्मा की चचो सुहाती ही नहीं है, वैराग्य की बात भी कड़वी लगती है, मिथ्यादर्शन और कुज्ञान सहित अशुभ कर्म बांधकर दुर्गति में चला जाता है।
अज्ञान से और स्वस्वरूप के प्रमाद से आत्मा को मात्र मृत्यु की भ्रांति है। उसी भ्रांति को निवृत्त करके शुद्ध चैतन्य निज अनुभव प्रमाण स्वरूप में परम जागृत होकर ज्ञानी सदैव निर्भय है। इसी स्वरूप के लक्ष्य से सर्व जीवों के प्रति साम्यभाव उत्पन्न होता है। सर्व परद्रव्य से वृत्ति को व्यावृत करके आत्मा अक्लेश समाधि को पाता है।
सम्यक्दृष्टि पुरुष अनिवार्य उदय के कारण लोक व्यवहार निर्दोषता एवं लज्जाशीलता से करते हैं। प्रवृत्ति करना चाहिये उससे शुभाशुभ जैसा होना होगा, वैसा होगा ऐसी दृढ मान्यता के साथ वे सहजता पूर्वक प्रवृत्ति करते हैं।
अज्ञानी जीव शरीर में एकत्व बुद्धि से विषयों के कल्पित सुख की तीव्र लालसा में पड़कर गुरु के उपदेश की उपेक्षा करके शुद्धात्म रुचि नहीं करता तथा बाह्य वैभव संसार प्रपंच में फंसा रहता है जिससे वह रोग की, वेदना की, मृत्यु की चपेट में आकर देह छोड़ता है, जिससे दुर्गति में चला जाता है। शरीर का एकत्व और भोगों की वांछा ही संसार भव बंधन का कारण है।
प्रश्न - यह भोग क्या हैं? दर्शन मोहांध इनमें लिप्त क्यों रहता है?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंभोगं अनिस्ट रूवं, अनिस्ट भावेन सरनि संसारे । अत्रित भाव स भोगं, दर्सन मोहंध अनित भोगं च ॥ २४९ ॥ भोर्ग संसार सुभावं, उवभोग अभावभाव उवलयं । अनिस्ट भोग स उत्तं, दर्सन मोहंध सुस्ट भोगं च ॥ २५०॥
अन्वयार्थ - (भोगं अनिस्ट रूवं) इन्द्रियों के भोग अनिष्टकारी हैं, #HHHHHHHk
आत्मा को शुद्ध स्वभाव से हटाने वाले हैं (अनिस्ट भावेन सरनि संसारे) इन अनिष्ट भोगों की भावना से संसार में भ्रमण होता है (अनित भाव स भोग) भोगों के साथ तीव्र अशुभ भाव होते हैं (दर्सन मोहंध अनित भोगं च) दर्शन मोहांध ऐसे क्षणभंगुर नाशवान भोगों में ही उलझा रहता है।
(भोगं संसार सुभावं) यह भोग संसार स्वभावमयी है अर्थात् पंचेन्द्रिय के भोगों में संसार के सभी जीव फंसे हैं, इन्हीं के कारण कर्म बंध जन्म-मरण का चक्र चलता है (उवभोगं अभाव भाव उवलष्यं) जो वस्तु एक बार भोगी जाये उसे भोग कहते हैं। जो वस्तु बार-बार भोगी जाये उसे उपभोग कहते हैं। इन भोग और उपभोग के भावों का अभाव प्रत्यक्ष देखा जाता है अर्थात् जब वस्तु होती है तो भोगने के भाव नहीं होते और जब भोगने के भाव होते हैं, तब वस्तु नहीं होती और यह भाव भी क्षणिक होते हैं, स्थायी नहीं रहते (अनिस्ट भोग स उत्तं) इसलिये यह भोग अनिष्टकारी कहे गये हैं (दर्सन मोहंध सुस्ट भोगं च) दर्शन मोहांध इन भोगों को हितरूप प्रिय मानता है।
विशेषार्थ-शरीर की पांच इन्द्रियों की वासना को भोग कहते हैं,यह भोग महान अनिष्टकारी हैं। विषयों की तीव्र आसक्ति ही व्यसन कहलाती है जो नरक निगोद का कारण है, इन विषय भोगों की आसक्ति से जीव धर्म कर्म का विचार, आत्म कल्याण को भूलकर न्याय-अन्याय का विचार छोड़कर महान तृष्णा में आतुर रहने से तीव्र अशुभ भावों से पाप कर्म का बंध कर दुर्गति चला जाता है, दर्शन मोहांध अज्ञानी मिथ्यादृष्टि ऐसे क्षणभंगुर नाशवान भोगों में ही उलझा रहता है।
पंचेन्द्रिय के भोगों में सारा संसार फंसा है तथा इन्हीं भोगों की वासना से ही बार-बार शरीर प्राप्त होता है, इसी से जन्म-मरण का चक्र चलता है। दर्शन मोहांध इन भोगों को हितरूप प्रिय मानता है जबकि यह रात-दिन तड़फाने, दु:ख देने वाले हैं। जब भोगने के भाव होते हैं तब भोग नहीं होता, जब भोग होते हैं तब भाव नहीं होता। इस प्रकार अज्ञानी जीव हमेशा आकुल-व्याकुल चिंतित और दु:खी रहता है, विषय भोगों की तीव्र आसक्ति ही व्यसन कहलाती है जिसमें फंसकर प्राणी दुष्कर्म करके नरक निगोद जाता है। स्वर्ग लोक में इच्छानुसार पंचेन्द्रियों के सुखों को निरंतर भोग करके भी जो तृप्त नहीं हुआ, वह अब इन थोड़े से विषय सुखों से कैसे तृप्त होगा? हलाहल जहर पीना तो अच्छा है उससे इसी जन्म का नाश होता है परंतु भोग
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