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******-*-** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
गाथा - २४६-२४८ KAKKk * देता। आत्मा परमात्मा की बात ही नहीं सुनता क्योंकि उसकी सर्व भावना सरीर भाव सहिओ, जिन उत्तं सुद्धवयन नहु पिच्छं। * संसार मय होती है, उसकी रुचि शरीर संबंधी व लौकिक कार्य संबंधी व्यवहार
मिच्छा कुन्यान सहिओ, दर्सन मोहंध दुग्गए पत्तं ॥ २४८॥ की ही तरफ रहती है। वह अपने आत्म कल्याण की बात, संसार परिभ्रमण से छूटने का कभी विचार ही नहीं करता है, अपने आत्म स्वरूप का बोध ही नहीं।
अन्वयार्थ - (सरीरं विस्यन्तो) ज्ञानी शरीर से विरक्त उदासीन रहता
है (सरीर भाव असुह मुक्कं च) शरीर संबंधी अशुभ भावों को उसने त्याग होता है इसलिये वह दुर्गति में जाता है। अज्ञानी उत्पाद व्यय अर्थात् क्षणभंगुर नाशवान एक समय की पर्याय
दिया है (न्यानेन न्यान सुद्ध) उसको निश्चय है कि ज्ञान से ही ज्ञान की शुद्धि के साथ-साथ चलता जाता है परंतु ज्ञानी ने नित्य में अर्थात् ध्रुव द्रव्य स्वभाव
होती है अर्थात् ज्ञान से ही आत्म कल्याण होता है, शरीरादि की क्रिया से नहीं में अपना अस्तित्व स्थापित किया है अत: वह उत्पाद व्यय के साथ नहीं
होता (दर्सन मोहंध सरीर सहकारं) परंतु दर्शन मोहांध अज्ञानी शरीर की ही जाता किंतु उत्पाद व्यय को जान लेता है। त्रिकाली का अभाव होने से अज्ञानी
भावना रखता है, शरीर के द्वारा ही अपना भला-बुरा मानता है। को परिणाम मात्र में एकत्व होता रहता है, ज्ञानी को इसका ज्ञान रहता है।
(अनित असत्य सहियं) अज्ञानी मिथ्या व नाशवंत इस शरीर के साथ ज्ञानी को जहाँ स्वरूप निधान प्रगट होता है, वहाँ पर्याय में बल आ जाता है,
(असुचि अमेय भाव अनन्तानं) जो अपवित्र, घिनावना मलमूत्र का पिंड है निर्भयता, नि:शंकता आ जाती है, प्रतिक्षण अबंध स्वरूप प्रगटता जाता है,
इसके विषय पोषण के अनंतानंत भाव किया करता है (तं नितं जानंतो) वह वर्तमान में पुण्य भाव हो और उनका फल प्राप्त होवे ऐसी वांछा ज्ञानी को
शरीर को ही सत्य शाश्वत जानता है (दर्सन मोहंध अनिस्ट रूवेन) दर्शन नहीं है। ज्ञानी निर्धन हो अथवा धनवान हो, अज्ञानी निर्धन हो अथवा धनवान
मोहांध अपना अनिष्ट ही करता है अर्थात् शरीर के साथ जन्मता-मरता हो ऐसा कुछ नियम नहीं है। पूर्व निष्पन्न शुभाशुभ कर्म के अनुसार दोनों का
रहता है। उदय रहता है। ज्ञानी उदय में सम रहते हैं, अज्ञानी हर्ष-विषाद को प्राप्त
(सरीर भाव सहिओ) शरीर संबंधी भावों में लिप्तता के कारण (जिन होता है।
उत्तं सुद्ध वयन नहु पिच्छं) जिनेन्द्र कथित शुद्ध वचनों को नहीं मानता अर्थात् दर्शन मोहांध स्त्री, पुत्र, पैसा प्रतिष्ठा आवरू आदि में या राग की मंदता
जिन प्रणीत शुद्धात्म स्वरूप का श्रद्धान ज्ञान नहीं करता है (मिच्छा कुन्यान में सुख है ऐसा मानता है और इसके लिये ही निरंतर प्रयत्नशील रहता है।
सहिओ) मिथ्यात्व और कुज्ञान सहित वर्तता है (दर्सन मोहंध दुग्गए पत्तं) इससे भिन्न मैं सच्चिदानंद स्वरूप भगवान आत्मा हूँ इसका बोध नहीं होता
इसलिये दर्शन मोहांध अज्ञानी मिथ्यादृष्टि दुर्गति में जाता है। इसलिये पर के प्रति आसक्त पुण्य-पाप में रत संसार में परिभ्रमण करता और
विशेषार्थ - सम्यक्दृष्टि ज्ञानी ने अपने आत्म स्वरूप को पहिचान दुर्गति के दुःख भोगता है, शरीरादि में रत रहने से जन्म-मरण करता है।
* लिया है कि मैं परमात्मा के समान ज्ञाता दृष्टा अविनाशी परमानंदमयी परम प्रश्न-शरीर के प्रतिज्ञानी और अज्ञानी का क्या दृष्टिकोण है,
वीतराग अखंड तत्त्व हूँ। यह शरीरादि सुख क्षणिक अतृप्तकारी हैं। शरीर शरीर का स्वरूप और उसका क्या परिणाम है?
जड़ अचेतन नाशवान है इसलिये वह शरीर से विरक्त उदासीन रहता है। इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं -
अपने ज्ञान को शुद्ध करने के लिये आत्मज्ञान स्वरूप का चिंतन-मनन करता सरीरं विरयन्तो, सरीर भाव असुह मुक्कं च ।
5 है, इसी से अतीन्द्रिय सुख और मुक्ति होती है।
अज्ञानी मिथ्यादृष्टि बिल्कुल इसके विपरीत रुचि रखता है, वह शरीर न्यानेन न्यान सुद्ध, दर्सन मोहंध सरीर सहकारं ।। २४६ ॥
में व इन्द्रिय सुख में ही आसक्त रहता है। अपने शरीर के साथ ऐसा मोह अनित असत्य सहियं, असुचि अमेय भाव अनन्तानं।
रखता है कि उसके सम्बंध को लेकर रात-दिन पांच इन्द्रिय भोग सम्बंधी तं नितं जानंतो, दर्सन मोहंध अनिस्ट रुवेन ॥ २४७॥ विषय-कषाय, पाप-परिग्रह के अनंत प्रकार के भाव किया करता है। जो
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