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गाथा-२४३-२४५--------
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章京中部
********* श्री उपदेश शुद्ध सार जी * कोई चाह होती है, उसे धर्म का दृढ श्रद्धान और कर्म का अटल विश्वास होता * है कि जब जैसा जो कुछ होना है, उसे कोई टाल फेर बदल सकता नहीं है,
कर्मोदय को कोई भी रोकने वाला नहीं है। मैं ध्रुव तत्त्व शुद्धात्मा हूँ, मेरा इन संसारी शरीरादि संयोग से कोई संबंध नहीं है, मैं अपने में परिपूर्ण परमात्मा हूँ, इससे नि:शंकित निर्भय रहता है।
जिनके अंतर में भेदज्ञान रूपी कला जागी है, चैतन्य के आनंद का वेदन हुआ है ऐसे ज्ञानी धर्मात्मा सहज वैरागी हैं, ऐसे ज्ञानी विषय कषायों में मगन हों यह संभवित नहीं है । ज्ञानी के तो अंतर में चैतन्य सुख के अलावा समस्त विषय सुख के प्रति उदासीनता होती है।
जिन जीवों को विषयों में सुख बुद्धि है, संसार की कामना वासना है वे ज्ञानी नहीं हैं। अभी जिनको अंतर में आत्मभान ही न हो, तत्त्व संबंधी कुछ भी विवेक न हो, वह कितना ही व्रत तप उपवास दानादि क्रिया करे तो भी संसारी अज्ञानी मिथ्यादृष्टि पापी ही है।
ज्ञानी-अज्ञानी के अभिप्राय में पूर्व-पश्चिम जैसा अंतर होता है। जिसकी दृष्टि सुलटी है उसका सब कुछ सुल्टा है और जिसकी दृष्टि उल्टी है उसका सारा ज्ञान उल्टा है।
ज्ञानी जीव नि:शंक तो इतना होता है कि सारा ब्रह्मांड पलट जाये तब भी वह स्वयं नहीं पलटता । ज्ञानी साधकों को संसार का कुछ नहीं चाहिये, वह संसार से विमुख होकर मोक्ष के मार्ग में चल रहे हैं, स्वभाव में सुभट हैं, अंतर से निर्भय हैं, उन्हें किसी कर्मोदय का भय नहीं है। अज्ञानी जीव शंकित और भयभीत रहता है, जरा-जरा सी बात में डरता, घबराता है और चाहे जैसा शुभ-अशुभ काम करने के लिये तैयार रहता है।
प्रश्न- अज्ञानी की यह स्थिति क्यों रहती है और इसका परिणाम क्या होता है?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - दर्सन मोहंध भावं, संसार सरनि धरंति सभावं । जिन वयन नहु दिई, अनन्त संसार दुष्य वीयम्मि ।। २४३ ॥ संसार भाव उवलव्यं, लाज भय गारवेन सभावं।
जिन उत्तं नहु लयं, संसारे सरनि भावना होई॥२४॥ ***** * * ***
संसार सरनि सोधं, अभावं भाव सरनि सुविसुद्धं । जिन समय नहु पिच्छड़, दर्सन मोहंध दुग्गए पत्तं ॥ २४५॥
अन्वयार्थ - (दर्सन मोहंध भावं) दर्शन मोहांध मिथ्यादृष्टि का यह भाव होता है (संसार सरनि धरंति सभाव) कि वह संसार में परिभ्रमण के स्वभाव को ही रखता है (जिन वयनं नहु दि8) वह जिन वचनों को नहीं देखता, न पढ़ता है, न सुनता, न श्रद्धान करता है (अनन्त संसार दुष्य वीयम्मि) अनंत संसार के दु:खों का बीज बोता है।
(संसार भाव उवलष्यं) उसका लक्ष्य बिंदु संसार भाव ही होता है (लाज भय गारवेन सभावं) वह लाज भय गारव में फंसा रहता है (जिन उत्तं नहु लष्यं) जिनेन्द्र कथित उपदेश पर लक्ष्य नहीं देता है (संसारे सरनि भावना होइ) उसकी भावना संसार परिभ्रमण की ही होती है।
(संसार सरनि सोध) वह संसार मार्ग की तरफ ही देखता है, उसी का विचार करता है (अभावं भाव सरनि सुविसुद्धं) इस संसार परिभ्रमण का अभाव कैसे हो, ऐसे कभी विशुद्ध भाव ही नहीं करता है (जिन समय नहु पिच्छइ) जिन स्वभावी आत्मा को नहीं पहिचानता, मैं आत्मा शुद्धात्मा परमात्मा हूँ, इस बात को नहीं जानता (दर्सन मोहंध दुग्गए पत्तं) इसलिये दर्शन मोहांध अज्ञानी दुर्गति में जाता है।
विशेषार्थ-दर्शन मोहांध अज्ञानी संसार में लिप्त रहता है। शरीर, धन, परिवार, परिग्रह, मान, प्रतिष्ठा आदि की चाह की दाह में जला करता है। इनके घटने या वियोग की शंका में रहता है। संसार की कामना वासना पूर्ति के लिये नाना प्रकार के मिथ्यात्व पूर्ण उपाय मंत्र, तंत्र, पूजा, पाठ आदि करता कराता रहता है। हमेशा संसार परिभ्रमण की ही दृष्टि रहती है। उसको जिनवाणी नहीं सुहाती है, वह न तो जिनेन्द्र परमात्मा के वचनों को सुनता है, न पढ़ता है, न श्रद्धान करता है, हमेशा पाप विषय कषायों में रत रहता हुआ अनंत संसार के दु:खों का बीज बोता है।
अज्ञानी का लक्ष्य राग-द्वेष, मोह व विषयों की पुष्टि का होता है, वह लाज भय गारव में फंसा रहता है। अपने नाम, पद, यश आदि के लिये भयभीत रहता है, इसके लिये करने, न करने योग्य सभी काम करता है और इसी में चिंतातुर रहता है। वह जिनेन्द्र भगवान के उपदेश पर ध्यान ही नहीं
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