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________________ गाथा-२४०-२४२ --------- * श्री उपदेश शुद्ध सार जी * धर्म का श्रद्धान होता है, न कर्म का विश्वास होता है। संसार परिभ्रमण से छूटने का एक मात्र उपाय सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप निज सत्स्वरूप का यथार्थ श्रद्धान ज्ञान ही है। अज्ञान संसार का कारण है, आत्म ज्ञान मुक्ति का कारण है। प्रश्न-शानी-अज्ञानी का संसार के प्रति क्या दृष्टिकोण रहता है, वह क्या करते हैं? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - सरनिभाव उवलष्यं, व्रत तपकिरियंच अन्यानसहकारं। न्यानी तं विरयन्तो, अप्प सहावेन निसंक रूवेन ॥ २४०॥ सरनस्य अनेय भावं,दानं किरियं च विकह रूवेन । न्यानी तं विरयन्तो, ममल सहावेन निसंक सहकारं ॥ २४१ ॥ संसार मंत्र तंत्र, टोटक सुभाव टेक नन्ताई। न्यानी विमुक्त भावं, न्यान सहावेन संक रहियं च ॥ २४२ ॥ अन्वयार्थ - (सरनि भाव उवलष्यं) अज्ञानी का लक्ष्य संसार के परिभ्रमण में कारणभूत भावों पर ही रहता है, उसके भावों से विषयानुराग नहीं जाता (व्रत तप किरियं च अन्यान सहकारं) वह मिथ्याज्ञान के ही द्वारा व्रत, तप व क्रियायें पालता है (न्यानी तं विरयन्तो) ज्ञानी संसार के कारणभूत भावों से, शुभ-अशुभ दोनों से विरक्त है (अप्प सहावेन निसंक रूवेन) वह निःशंक भावों से आत्मा के स्वभाव पर श्रद्धान रखता हुआ उसी में रत रहता है। (सरनस्य अनेय भाव) संसार में भ्रमण के अनेक भाव होते हैं (दानं किरियं च विकह रूवेन) विकथा रूप से दान देना और अन्य क्रियायें पालना (न्यानी तं विरयन्तो) ज्ञानी इन बातों से विरक्त रहता है (ममल सहावेन निसंक सहकारं) ममल स्वभाव के श्रद्धान ज्ञान से नि:शंक रहता है। (संसार मंत्र तंत्र) संसार के प्राणी मंत्र-तंत्र में फंसे रहते हैं (टोटक सुभाव टेक नन्ताई) अनेक प्रकार के टोटके करते हैं, जरा-जरा सी बात में * भयभीत रहते हैं, अनेक प्रकार के आग्रह मत मतान्तर, टेक अर्थात् जिद रखते हैं (न्यानी विमुक्त भावं) ज्ञानी इन भावों से विमुक्त रहता है (न्यान सहावेन संक रहियं च) वह ज्ञान स्वभाव से नि:शंक निर्भय रहता है। विशेषार्थ-ज्ञानी संसार के प्रति उदासीन और विरक्त रहता है, ज्ञानी को संसार की किसी वस्तु, कोई पद और स्वर्गादि की कामना वासना नहीं है ४ वह अपने में परिपूर्ण परमात्म पद का धारी स्वयं भगवान आत्मा है इससे नि:शंकित रहता है । कुछ भी नहीं करता, अपने में शांत, स्वस्थ आनंद में रहता है। अज्ञानी को संसार के प्रति आकर्षण है, उसे अपने सत्स्वरूप परमात्म पद का बोध न होने से वह संसारी कामना वासना के अभिप्राय से नाना प्रकार की क्रियायें करता है। अज्ञानी मिथ्यादृष्टि, इन्द्रिय विषय शारीरिक सुख के लक्ष्य से अनेक प्रकार के व्रत करता है, तपश्चरण करता है, बाहरी क्रियायें पालता है, इससे उसका संसार परिभ्रमण ही बढ़ता है क्योंकि शुभ-अशुभ भाव व क्रियायें, शुभ-अशुभ, पुण्य-पाप कर्म बंध के ही कारण हैं, जब तक कर्म बंध होगा तब तक मुक्ति नहीं हो सकती। ज्ञानी सम्यक्दृष्टि सर्व संसार की वासनाओं से इन्द्र अहमिन्द्र चक्रवर्ती पद से भी विरक्त रहता है, अपने आत्म स्वभाव की दृढ श्रद्धा रखता है कि मैं स्वयं भगवान हूँ इससे नि:शंक नि:कांक्षित रहता है। अज्ञानी संसार की भावना से कि मुझे मान सम्मान मिले, मनोनुकूल सुख मिले । वह स्त्री, पुत्र, राज वैभव, इन्द्र, चक्रवर्ती पद की कामना से अनेक प्रकार दान पुण्य और अनेक प्रकार की क्रियायें करता है, विकथाओं में रत रहता है, यह सब संसार परिभ्रमण को बढ़ाने वाले हैं। सम्यक्दृष्टि ज्ञानी अपने ममल स्वभाव के दृढ श्रद्धान से नि:शंकित रहता हुआ इन सब संसारी कामना-वासना से मुक्त सारी क्रिया कर्म आदि से विरक्त रहता है। अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव अनेक प्रकार की शंकायें मन में रखते हैं कि कहीं पुत्र का मरण न हो, स्त्री का मरण न हो, व्यापार में हानि न हो, शरीर में रोग न हो इत्यादि शंकायें रखकर उनको दूर करने के लिये नाना प्रकार के मंत्र तंत्र टोटके करते कराते हैं, उनको यह विश्वास होता है कि ऐसा टोटका करेंगे, यह मंत्र जपेंगे, यह तंत्र करेंगे तो अमुक कार्य सिद्ध हो जायेगा जबकि यह सब भाव पाप बंध और संसार के कारण हैं। ज्ञानी इन सब भावों से विमुक्त रहता है, न उसे कोई शंका होती है, न के १५४ *HHHHHHHHH 平务长长长长长的 长长长长长
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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