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गाथा-२३८,२३९
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* ******** श्री उपदेश शुद्ध सार जी . स्वभाव में रहने का प्रयास करना चाहिये । ज्ञायक की ध्रुवधाम में दृष्टि * जमने पर उसमें एकाग्रता रूप प्रयत्न करते-करते लीनता होती है यही सम्यक् तप है।
संसार परिभ्रमण अज्ञानी जीव ऐसे भाव से वैराग्य करता है कि यह सब क्षणिक है, सांसारिक उपाधि दु:ख रूप है ऐसे भाव से वह घोर तप करता है परंतु कषाय के साथ एकत्व बुद्धि नहीं टूटी होने से आत्म प्रतपन प्रगट नहीं होता, इससे संसार में ही परिभ्रमण करता है।
धर्मी जीव रोग की, वेदना की या मृत्यु की चपेट में नहीं आता क्योंकि उसने शुद्धात्मा की शरण प्राप्त की है। विपत्ति के समय वह आत्मा में से शांति प्राप्त कर लेता है, विकट प्रसंग में वह निज शुद्धात्मा की शरण विशेष लेता है । मरणादि के समय ज्ञानी जीव शाश्वत ऐसे निज ध्रुव धाम में विशेष जम जाता है।
अज्ञानी जीव विषयों के कल्पित सुख की तीव्र लालसा में पड़कर गुरु के उपदेश की उपेक्षा करके शुद्धात्म रुचि नहीं करता तथा इतना काम कर लूं, ऐसा कर लूं इस प्रकार प्रवृत्ति के रस में लीन रहने से शुद्धात्म प्रतीति के उद्यम का समय नहीं पाता, इतने में मृत्यु का समय आ पहुंचता है तथा वह रोग की, वेदना की, मृत्यु की एकत्व बुद्धि की और आर्तध्यान की चपेट में आकर देह छोड़ता है और संसार में ही परिभ्रमण करता है।
प्रश्न-इस संसार परिभ्रमण का कारण क्या है और इससे छटने का उपाय क्या है?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - संसारे विरयंतो, संसारे सरनि सरंति नहु पिच्छं। न्यानी ससंक मुक्क, दर्सन मोहंध ससंक ससरूवं ॥ २३८॥ संसार सरनि अनितं, हिंडति संसार पषिनो भावं। न्यानी ससंक विरयं, दर्सन मोहंध संक उप्पत्ती ।। २३९॥
अन्वयार्थ - (संसारे विरयंतो) संसार से वैराग्य भाव रखता हुआ (संसारे सरनि सरंति नहु पिच्छं) संसार परिभ्रमण में कितना चक्कर लगाया * इस ओर लक्ष्य नहीं रखता (न्यानी ससंक मुक्कं) ज्ञानी संसार परिभ्रमण की
शंका से मुक्त हो गया है (दर्सन मोहंध ससंक ससरूव) दर्शन मोहांध मिथ्या दृष्टि अपने सत्स्वरूप में शंकावान होता हुआ संसार के भ्रमण की शंका रखता है।
(संसार सरनि अनितं) संसार परिभ्रमण क्षणभंगुर नाशवान असत् है (हिंडति संसार पषिनो भावं) संसार में रुलने, संसार परिभ्रमण का कारण, ॐ पक्ष का भाव, व्यवहार, जाति संप्रदाय का भाव है (न्यानी ससंक विरयं)
ज्ञानी सारी शंकाओं से छूट गया है (दर्सन मोहंध संक उप्पत्ती) दर्शन मोहांध को शंकायें पैदा होती रहती हैं।
विशेषार्थ - जीव की अपने स्वरूप की विस्मृति, अज्ञान भाव ही संसार परिभ्रमण का कारण है । मैं आत्मा शुद्धात्मा परमात्मा हूँ, ऐसा ज्ञान न होने से तथा यह शरीर ही मैं हूँ, यह शरीरादि मेरे हैं और मैं इन सबका कर्ता हूँ, ऐसी मिथ्या मान्यता, दर्शन मोहांध ही संसार परिभ्रमण का कारण है । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव इस पंच परावर्तन को संसार कहते हैं, जिसमें जन्म-मरण करना ही परिभ्रमण कहलाता है । जिसे भेदज्ञान द्वारा स्व-पर का यथार्थ श्रद्धान ज्ञान हो जाता है वह सम्यकदृष्टि ज्ञानी कहलाता है, वह जानता है कि इस शरीर आदि से भिन्न मैं एक अखंड अविनाशी चेतन तत्त्व भगवान आत्मा हूँ, यह शरीरादि मैं नहीं और यह मेरे नहीं हैं। मैं ध्रुवतत्त्व शुद्धात्मा हूँ और पर्यायी परिणमन संसार सब असत् क्षणभंगुर नाशवान है।
___ ज्ञानी नि:शंकित निर्भय होता है, वह पर्यायी परिणमन संसार को कोई महत्व नहीं देता है । ज्ञानी को अपने सत्स्वरूप का दृढ श्रद्धान होता है कि मैं एक अखंड अविनाशी शुद्धात्मा परमात्मा हूँ। वह संसार परिभ्रमण को न
देखता है, न उसका कोई विकल्प रखता है कि कितना संसार परिभ्रमण 20 किया? इन सबसे विरक्त, वैराग्य भाव से ज्ञानी अपने में नि:शंकित रहता है कि अब मुझे संसार में रहना ही नहीं है, मुझे तो मुक्त ही होना है।
मिथ्यादृष्टि दर्शन मोहांध को अपने स्वस्वरूप का ज्ञान, श्रद्धान नहीं है। वह शरीर, धन, परिवार रूपी संसार में आपा मानकर निरंतर शंकित
और भयभीत रहता है। विषयों से व मोह माया से बहुत राग करता है इसलिये वह इस क्षणभंगुर संसार की पर्यायों में भ्रमण करता रहता है, उसको शंका भी रहती है, वह जाति सम्प्रदाय व्यवहार पक्षपात से बंधा रहता है, उसे कहीं आपत्ति न आ जाये, मर न जाऊँ इसका निरंतर भय बना रहता है, उसे न
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