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________________ गाथा-२३६,२३७ -H-RRH 崇州市帝些些帝命政治 HHATH श्री उपदेश शुद्ध सार जी *ही चारित्र अथवा तप है। जो वीतराग दशा प्रगट करे सो तप है। उस समय * काय क्लेश होता है परंतु साधक तो उससे आत्मा में होने वाली विभाव परिणति * के संस्कार को मिटाने का उद्यम करता है तथा अपने उपयोग को चारित्र में स्थिर करता है, बहुत उग्रता से स्तंभित करता है ऐसी उग्रता ही तप है, यह बाह्य अभ्यंतर भेद से बारह प्रकार का है। यद्यपि तप भी चारित्र में गर्भित है तथापि विशेषता यह है कि इससे कर्मों का क्षय होता है। निश्चय तप आत्मा का अपने आत्मा में ही तपना है। दर्शन मोहांध मिथ्यादृष्टि के ऊपर ऐसा कर्मों का आवरण है, जिससे वह मिथ्या बाह्य तप करता है, इससे कर्मों की निर्जरा नहीं होती अपितु कर्मों का बंध होता है और संसार में भ्रमता है। अनशन, ऊनोदर, वृत्ति परिसंख्यान, रस परित्याग, विविक्त सयनासन, काय क्लेश यह बाह्य तप हैं। सम्यक्दृष्टि मुक्ति की प्राप्ति और रत्नत्रय की साधना हेतु तप करता है और इससे कर्म क्षय होते हैं। मिथ्यादृष्टि विषय भोग, पुण्य की इच्छा हेतु स्वर्गादि के सुख भोगने के लिये बाह्य तप करता है इससे नरक जाता है। ___ द्रव्यलिंगी साधु होकर भी जीव कहीं सूक्ष्म रूप से अटक जाता है, शुभ भाव की मिठास में रुक जाता है, यह राग की मंदता, यह अट्ठाईस मूलगुण, बस यही मैं हूँ, यही मोक्ष का मार्ग है इत्यादि । किसी प्रकार संतुष्ट होकर अटक जाता है, पाप भाव को त्यागकर सब कुछ कर लिया ऐसा मानकर संतुष्ट हो जाता है। द्रव्यलिंगी साधु ने मूल को ही नहीं पकड़ा है वह अपना आत्म स्वरूप नहीं जानता, उसने कुछ किया ही नहीं, परीषह सहन करे किंतु अंतर में कर्तृत्व बुद्धि नहीं टूटी, इससे संसार में ही परिभ्रमण करता है। जिसने आत्मा को पहिचाना है, अनुभव किया है, उसको आत्मा ही सदा समीप वर्तता है, प्रत्येक पर्याय में शुद्धात्म तत्त्व ही मुख्य रहता है, साधक को पंचाचार, व्रत, नियम, संयम, तप इत्यादि शुभ भावों के समय भी भेदज्ञान की धारा, स्वरूप की शुद्ध चारित्र दशा निरंतर चलती ही रहती है, इसी की विशेषता रूप आगे गाथा कहते हैं - ___ अप्प सहावे निलयं, पर सहकार विमुक्त तव उत्त। कस्ट अनिस्ट रूर्व, दर्सन मोहंध दुग्गए पत्तं ॥ २३६ ॥ तवं च अलण्य लयं, लषन्तो सहाव सखममलं च। संसार सरनि विरयं, दर्सन मोहंध सरनि संजुत्तं ॥ २३७॥ अन्वयार्थ - (अप्प सहावे निलयं) आत्मा के स्वरूप में तल्लीन होना (पर सहकार विमुक्त तव उत्तं) पर पदार्थ की भावना से मुक्त हो जाना तप कहा गया है (कस्टं अनिस्ट रूवं) इसके विरुद्ध शरीर को कष्ट देने रूप बाहरी तप तपना अनिष्ट, अहितकारी है (दर्सन मोहंध दुग्गए पत्तं) दर्शन मोहांध मिथ्या तप करके दुर्गति जाता है। (तवं च अलष्य लष्यं) तप वही है जो अलख का लक्ष्य, अनुभव करता है (लषन्तो सहाव सुद्ध ममलं च) जिसमें शुद्ध ममल स्वभाव को देखता, ध्याता है वही सच्चा तप है, जिससे (संसार सरनि विरयं) संसार के परिभ्रमण से छूट जाता है (दर्सन मोहंध सरनि संजुत्तं) दर्शन मोहांध झूठे मिथ्या तपों का पालन कर संसार में ही परिभ्रमण करता है। विशेषार्थ- आत्मा के अतिरिक्त जितने पुद्गलादि पर पदार्थ हैं तथा रागादि अशुद्ध भाव हैं उनको चित्त से हटाकर एक शुद्ध आत्मा के ध्यान में मग्न होना ही तप है। यदि ऐसा तप न हो और बाहरी काय को कष्ट देव आर्त ध्यान करे तो वह मिथ्या तप है, दर्शन मोहांध ऐसा कुतप करके दुर्गति पाता है। मन वचन काय तीनों के द्वारा आत्मा अनुभव में नहीं आता इसलिये अलख है, ऐसे सूक्ष्म आत्मा से, शुद्ध ममल स्वभाव का लक्ष्य, ध्यान किया जाये वही सच्चा तप है। यही तप संसार नाशक है और ऐसा तप सम्यकदृष्टि ही कर सकता है। दर्शन मोहांध मिथ्यादृष्टि आत्मज्ञान से शून्य है वह बाहरी क्रिया कायक्लेश को तप मानता है, वह संसार का मोही है, इससे संसार में ही भ्रमता है। मैं ही परमात्मा हूँ, जब ऐसा संस्कार जम जाता है, इसी की भावना की जाती है और इसमें दृढता स्थिरता होती है तब आत्मा, आत्मा में ठहर जाता है, यही आत्म ध्यान रूपी यथार्थ तप है जिससे संसार परिभ्रमण छूटता है, कर्म क्षय होते हैं। जिसे भवभ्रमण से छूटना हो उसे अपने को पर द्रव्य से भिन्न पदार्थ निश्चित करके अपने धुव ज्ञायक स्वभाव की महिमा लाकर अपने ममल शुद्ध - -- ------
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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