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*-*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
चारित्र सम्यक् नहीं है, वह नौवें ग्रैवेयक तक जाकर भी संसार में ही भ्रमण करेगा । सम्यक्दर्शन, ज्ञान बिना सम्यक्चारित्र नहीं हो सकता ।
आत्मा का शुद्ध स्वभाव ध्रुव तत्त्व में लय होना निश्चय चारित्र है इससे केवलज्ञान परमात्म पद प्रगट होता है। मिथ्यादृष्टि, दर्शन मोहांध जीव, अहितकारी राग-द्वेषवर्द्धक, विषय-कषाय पोषक बाह्य क्रिया आडम्बर में रहकर हिंसादि पापों में प्रवृत्ति करता है और उसे धर्म व मुक्ति का मार्ग मानता है इससे वह नरक के दुःखों का बीज बोता है।
बाह्य चारित्र से कभी मुक्ति नहीं होती, श्रावक या साधु का व्यवहार चारित्र मन, वचन, काय को रोकने के लिये व आकुलता हटाने के लिये साधन है, पुण्यबंध होकर देवगति तक जा सकता है परंतु आत्मज्ञान बिना कभी मुक्ति नहीं होती ।
मुनिधर्म शुद्धोपयोग रूप है। पुण्य-पाप रूप, शुभाशुभ भाव धर्म नहीं है, शुद्धोपयोग ही धर्म है, यही सम्यक्चारित्र है। सम्यक्दर्शन सहित अंतर में लीनता वर्तती हो वही मुनि धर्म है।
प्रश्न बाह्य चारित्र संयम, तप, त्याग का पालन करने से मुक्ति नहीं होती, यह धर्म नहीं है तो आगम में इनको धर्म क्यों कहा गया है फिर इनका पालन करने की क्या आवश्यकता है ?
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समाधान - बाह्य चारित्र संयम, तप, पूजा पाठ आदि पुण्य बंध का कारण है, आत्मानुभव ही कर्म क्षय मुक्ति का कारण है। संसार में अज्ञानी जीव पाप, विषय- कषाय में रत रहता है जिससे पापबंध और दुर्गति होती है, उससे बचने हटने की अपेक्षा इन शुभ क्रियाओं को व्यवहार धर्म कहा है परंतु यह धर्म नहीं है क्योंकि वस्तु स्वभाव ही धर्म होता है। बाह्य चारित्र का पालन करने से पुण्य का बंध होता है। जब तक बंध है तब तक मुक्ति कैसे हो सकती है ? परंतु पुण्य से संसारी शुभयोग और अनुकूलता मिलती है इससे जिस जीव की होनहार अच्छी हो, सत्संग आदि करे तो दृष्टि बदलकर आत्मानुभूति हो सकती है।
• जिसको सच्ची श्रद्धा प्रगट होती है उसका संपूर्ण अंतरंग ही बदल जाता है, हृदय पलट जाता है। अंतर में उथल-पुथल हो जाती है, अनादि अज्ञान अंधकार टलता है, अंतर की ज्योति जाग उठती है।
मैं ज्ञान स्वभावी, ममल स्वभावी, भगवान आत्मा हूँ, मेरे स्वभाव में
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गाथा- २३४, २३५**** संसार नहीं है, किसी परजीव, परद्रव्य, परमाणु मात्र से तथा एक समय की पर्याय से भी मेरा कोई संबंध नहीं है। ऐसे भान पूर्वक धर्मी जीव निज स्वभाव की साधना और संसार के स्वरूप का विचार करते हैं। अरिहंत, सिद्धों को जैसा अनुभव होता है वैसा धर्मी जान लेता है।
अनुभव पूज्य है, स्वयं शुद्ध सच्चिदानंद है, ऐसी श्रद्धा सहित अनुभव पूज्य है। वही परम इष्ट है, वही धर्म है, वही जगत का सार उपदेश शुद्ध सार है। आत्मानुभव ही भव से उद्धार करता है । अपने स्वरूप की स्मृति ही संयम है और स्वरूप में स्थित रहना ही तप है इसी से मुक्ति होती है।
प्रश्न- अपने स्वरूप में स्थित रहना ही तप है, तो दर्शन मोहांध इसको कैसे पालता है, उसकी तप की क्या मान्यता होती है ? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंतर्वपि अप्य सहावं, न्यान सहावेन चरन सहकारं ।
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दर्सन मोहंब असत्यं तव आवरन सरनि संसारे ।। २३४ ।।
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तव पुन इस्ट संजोयं, इस्टं सहकार कम्म विलयंति । दर्सन मोहंध अनिस्टं, तव आवरन विषय नरयम्मि ॥ २३५ ॥
अन्वयार्थ - (तवंपि अप्प सहावं) तप ही निश्चय से आत्मा का स्वभाव है (न्यान सहावेन चरन सहकारं ) ज्ञान स्वभाव से अर्थात् सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान पूर्वक सम्यक् चारित्र का पालन करना, अपने स्वभाव में रहना तप है (दर्सन मोहंध असत्यं) दर्शन मोहांध मिथ्यादृष्टि झूठा तप पालता है अर्थात् व्रत, उपवास आदि को तप मानता है (तव आवरन सरनि संसारे) सम्यक् तप पर आवरण डालकर संसार में ही परिभ्रमण करता है।
( तव पुन इस्ट संजोयं) सम्यक् तप उसके इष्ट संयोग रत्नत्रय सहित ही होता है (इस्ट सहकार कम्म विलयंति) इष्ट सहकार रत्नत्रय की साधना से
कर्मों का क्षय होता है, विला जाते हैं (दर्सन मोहंध अनिस्टं) दर्शन मोहांध अनिष्ट संयोग मिलाता है (तव आवरन विषय नरयम्मि) वह बाह्य तप को विषयों की पूर्ति के हेतु करता है जिससे नरक जाता है।
विशेषार्थ - चारित्र के प्रयोजन से किये जाने वाले उद्यम व उपयोग को तप कहा है। आत्मा में पुरुषार्थ पूर्वक निज उपयोग को तन्मय करना सो
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