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************* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
उनको सम्यक्दर्शन नहीं होता ।
सम्यक् दृष्टि जीव अपने स्वरूप को जानकर, उसकी प्रतीति कर स्वरूपाचरण कर ऐसा अनुभव करता है कि मैं तो चैतन्य मात्र ज्योति हूँ, शुद्ध बुद्ध चैतन्य घन ज्ञान ज्योति सुख धाम मैं हूँ। चैतन्य ज्ञान दर्शन मात्र ज्योति हूँ, मैं रागादि रूप बिल्कुल नहीं हूँ । धर्मी स्वयं को चैतन्य मात्र ज्योतिरूप आत्मा मानते हैं। अपने को रागरूप, शरीरादि पर्याय रूप नहीं मानते और न उसके कर्ता भोक्ता बनते ।
साधक जीव को भूमिकानुसार देव गुरु शास्त्र की महिमा भक्ति, श्रुत चितवन, अणुव्रत, महाव्रत आदि के शुभ विकल्प आते हैं तद्रूप पर्यायी परिणमन भी होता है परंतु वे उन्हें इष्ट, हितकारी उपादेय नहीं मानते हैं वे भी ज्ञायक परिणति में बोझ रूप, भार रूप विकल्प हैं ।
प्रश्न- क्या सम्यक् चारित्र में बाह्य चारित्र को कोई स्थान नहीं है ?
समाधान - त्रिकाली ध्रुव शुद्धात्म तत्त्व के अनुभव से सम्यक्दर्शन ज्ञान होता है और निज स्वभाव में रहने पर ही सम्यक् चारित्र होता है, उसकी लीनता से केवलज्ञान होता है। धर्मी की दृष्टि उसके स्वभाव पर से हटती नहीं है, यदि यह दृष्टि वहाँ से हटकर वर्तमान पर्याय में रुके, एक समय की पर्याय की रुचि हो जाये तो मिथ्यादृष्टि हो जाता है। ज्ञानी मोक्षमार्गी वह है जिसकी पर्याय में वीतरागता प्रगट होने पर भी वह पर्याय में रुकता नहीं, उसकी दृष्टि तो त्रिकाली ध्रुव पर ही टिकी है। इस सम्यक् चारित्र की साधना में भूमिकानुसार बाह्य चारित्र होता है परंतु उसकी अपेक्षा या लक्ष्य नहीं रहता। जैसे मनुष्य के चलने पर उसकी छाया (परछाईं) अपने आप चलती है, जैसे किसान के बीज बोने पर अंकुर, पत्ती, टहनी, फूल, फल अपने आप होते हैं, अनाज के साथ भूसा सहज ही आता है, वैसे ही मोक्षमार्गी सम्यकदृष्टि ज्ञानी के सम्यक्चारित्र के साथ भूमिकानुसार बाह्य चारित्र अणुव्रत, महाव्रत अपने आप होते हैं। प्रश्न- क्या बाह्य चारित्र पालन करने वाले की कभी मुक्ति नहीं होती ?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं -
चरनंपि ममल चरनं, चरनं संजुत मुक्ति गमनं च ।
दर्सन मोहंध अभावं, चरनं आवरन दुष्य वीयम्मि ।। २३१ ॥
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गाथा- २३१-२३३************
चरनं सुद्ध सहावं, सुद्धं सहकार कम्म षिपनं च । दर्सन मोहंध असुद्धं, चरनं आवरन सरनि संसारे ।। २३२ ।। चरनं इस्ट संजोयं, इर्स्ट संजोइ नन्त दरसे ई । दर्सन मोहंध अनिस्टं, चरनं आवरन नरय वीयम्मि ॥ २३३ ॥
अन्वयार्थ - (चरनंपि ममल चरनं) ममल चारित्र को चारित्र कहते हैं (चरनं संजुत्त मुक्ति गमनं च ) सम्यक् चारित्र का पालन करने से मुक्ति की प्राप्ति होती है (दर्सन मोहंध अभावं) दर्शन मोहांध को सम्यक् चारित्र का अभाव होता है अर्थात् मिथ्यादृष्टि को सम्यक् चारित्र होता ही नहीं है वह (चरनं आवरन दुष्य वीयम्मि) आत्मानुभूति रहित बाह्य चारित्र का पालन कर संसार रूपी दुःखों का बीज बोता है।
(चरनं सुद्ध सहावं) अपने शुद्ध स्वभाव में रहना ही सम्यक् चारित्र है। (सुद्धं सहकार कम्म षिपनं च ) शुद्ध वीतराग चारित्र के सहकार से कर्मों का क्षय होता है (दर्सन मोहंध असुद्धं) दर्शन मोहांध मिथ्यादृष्टि का चारित्र अशुद्ध, मिथ्याचारित्र होता है (चरनं आवरन सरनि संसारे) सम्यक् चारित्र का आवरण होने से संसार में ही भ्रमण करता है।
(चरनं इस्ट संजोयं) अपने इष्ट निज शुद्धात्मा का ध्यान ही सम्यक् चारित्र है (इस्टं संजोइ नन्त दरसेई) निज शुद्धात्मा का ध्यान, उसी में रमणता होने से अनंत चतुष्टय स्वरूप दिखाई देता है अर्थात् केवलज्ञान प्रगट होता है (दर्सन मोहंध अनिस्ट) दर्शन मोहांध इसके विपरीत संसार का आर्त-रौद्र ध्यान करता है (चरनं आवरन नरय वीयम्मि) ऐसे अनिष्ट ध्यान से चारित्र पर आवरण डालकर नरक का बीज बोता है।
विशेषार्थ - आत्म श्रद्धान पूर्वक जो श्रावक या मुनि का निर्दोष चारित्र पाला जावे तथा आत्मध्यान का अभ्यास किया जावे वह सम्यक्दर्शन पूर्वक सम्यक् चारित्र मोक्ष का कारण होता है परंतु जहाँ मिथ्यात्व है, दर्शन मोहांधपना है वहाँ सम्यक्चारित्र अर्थात् आत्म स्वरूप का श्रद्धान, ज्ञान, आचरण है ही नहीं, वहाँ बाह्य चारित्र को ही धर्म और मुक्ति मार्ग माना जाता है जो कर्मबंध और दुःखों का हेतु है ।
जब वीतराग चारित्र शुद्धात्मा में रमणता होती है तब ही कर्मों की निर्जरा होती है । मिथ्यादृष्टि आत्मज्ञान रहित है, उसका शुभ या अशुभ कोई भी
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