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गाथा-२२९,२३०-------
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* ******* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
द्रव्यलिंगी विषय सेवन छोड़कर तपश्चरण करे तो भी वह असंयमी है क्योंकि उसका तो प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान है। दर्शन मोहांध मिथ्यादृष्टि * साधु नौ कोटि बाड़ ब्रह्मचर्य का पालन करे, मंद कषाय करे परंतु आत्मा का भान न होने से संसार में ही परिभ्रमण करता है।
जिनके अंतर में भेदज्ञान रूपी कला जागी है, चैतन्य के आनंद का वेदन हुआ है, ऐसे ज्ञानी धर्मात्मा सहज वैरागी हैं। अभी जिसको अंतर में आत्मभान ही न हो, तत्त्व संबंधी कुछ भी विवेक न हो वह बाह्य में व्रत तपादि क्रिया करे और अपने को ज्ञानी चारित्रवंत माने तो वह स्वच्छंदता का पोषण करता है।
अज्ञानी कदाचित् व्यवहार धारणा तो करता है परंतु अंतर्दृष्टि नहीं करता जिस कारण से वह अप्रयोजन भूत तत्त्व को ही जानता है, उसकी भ्रम बुद्धि रहती है।
राग रहित सम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्र की एकता रूप वीतराग भाव ही धर्म है । मैं ज्ञायक हूँ ऐसे स्वभाव के श्रद्धान ज्ञान पूर्वक जितना वीतराग भाव हुआ उतना संवर धर्म है तथा उसी समय जो रागांश है वह आसव है। धर्मी जीव उन दोनों को भिन्न-भिन्न जानता है।
प्रश्न-दर्शन मोहांध का चारित्र क्या सब व्यर्थ ही जाता है?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंचरनं पि सुख चरनं, पषिक चरन पषि मोहंध। पषि प्रवेस उवन्नं, चरनं आवरन पषि उववन्नं ।। २२९ ।। दर्सन मोहंध स उत्त, चरनं आवरन अत्रितं दिस्टं। अनाचार अन्यानं,चरनं आवरन निगोय वासम्मि ॥ २३०॥
अन्वयार्थ - (चरनं पि सुद्ध चरनं) चारित्र वही है जो शद्ध चारित्र, सम्यक्चारित्र हो (पषिक चरन पषि मोहंधं) किसी पक्ष का चारित्र पक्ष के मोह में अंधा करता है अर्थात् सम्प्रदायवाद के पक्ष को लेकर जो व्यवहार चारित्र पाला जाता है। भेष, क्रिया, आडंबर किया जाता है वह पक्ष के मोह में अंधा करता है वह शुद्ध चारित्र नहीं है (पषि प्रवेस उवन्न) जहाँ जाति, सम्प्रदायगत
पक्षभाव का प्रवेश उत्पन्न हो जाता है (चरनं आवरन पषि उववन्न) वहाँ * सम्यक्चारित्र पर आवरण हो जाता है, पर्दा पड़ जाता है और पक्षपात पैदा हो *HARASHTRA
जाता है।
(दर्सन मोहंध स उत्तं) उसी को दर्शन मोहांध कहते हैं जो (चरनं आवरन अनितं दिस्टं) अपने आत्म स्वभाव रूप चारित्र पर आवरण डालकर पक्षपात में फंसकर बाहरी क्रिया वेषभूषा आदि देखता है और उसका पालन करता है (अनाचार अन्यानं) इस पक्षपात रूप बाह्य चारित्र से अनाचार, अन्याय, हिंसा, बैर विरोध बढ़ता है (चरनं आवरन निगोय वासम्मि) इस प्रकार सम्यक्चारित्र पर आवरण डालकर दर्शन मोहांध पक्षपात रूप मिथ्याचारित्र का पालन कर निगोद में पहुँच जाता है।
विशेषार्थ- सम्यक्दृष्टि का जो चारित्र है वह शुद्ध चारित्र, सम्यक्चारित्र होता है, वह अपनी शक्ति संहनन पात्रता देखकर बाहर में श्रावक या मुनि का चारित्र पालते हुए शुद्धोपयोग में रमण का उत्साह रखता है। वह आत्मानुभव को ही चारित्र जानता है, मैं मुनि हूँ, श्रावक हूँ इस अहंकार को मिथ्यात्व समझता है।
__दर्शन मोहांध मिथ्यादृष्टि, इस शुद्ध वीतराग चारित्र को कषायों के उदय से यथार्थ न समझकर, किसी मत का पक्ष रखता हुआ, तपसी का, दंडी का, श्रावक का या मुनि का भेष बना लेता है और बाहर से उसी पक्ष सम्प्रदाय के अनुसार क्रियाकांड आडंबर में उलझ जाता है, भीतर परिणामों की पहिचान नहीं रखता, आत्मानुभूति होती नहीं है, इससे वह अहंकार में भर जाता है: और पक्षपात में फंसकर बैर विरोध हिंसा अन्याय अनाचार करता हुआ अपने को धर्मात्मा मानता है, ऐसे चारित्र को मिथ्याचारित्र ही कहते हैं जिसका परिणाम निगोद वास होता है।
जो ममल स्वभावी शुद्धात्मा है, ऐसे निज चैतन्य स्वरूप की जिसे महिमा है उसे सम्यक्दृष्टि कहते हैं और उसे दया दान आदि के राग की व उनके फल की पुण्य की महिमा नहीं होती। जिन्हें दया दान आदि के राग की व अनुकूल पुण्य फल की महिमा है, उन्हें सुख समूह रूप आनंद कंद भगवान आत्मा की महिमा नहीं आती। जिनको व्यवहार रत्नत्रय के शुभराग की, देव * गुरु शास्त्र की अंतर में महिमा वर्तती है उनको निमित्त का जिसमें अभाव है, राग का जिसमें अभाव है, ऐसे स्वभाव भाव की महिमा नहीं है जिससे उन्हें पर्याय में आनंद नहीं आता । जिनको शुभ भाव से लेकर बाहर में किसी घटना, वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति की अधिकता आश्चर्य और महिमा लगती है ।
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