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________________ गाथा-२२७,२२८------- श-52-53-6--16--153-5 - श्री उपदेश शुद्ध सार जी (संजम चरनानि सुद्ध संजुत्तं) दूसरा संयमाचरण चारित्र होता है, शुद्धोपयोग की स्थिति ही सम्यक्चारित्र है। विशेषार्थ-निश्चय नय से निज आत्मा का द्रव्यदृष्टि से श्रद्धान * सम्यकदर्शन है उसी का यथावत् ज्ञान सम्यक्ज्ञान है। ज्ञान स्व-पर प्रकाशक होता है, स्व-पर का यथार्थ स्वरूप सम्यक्ज्ञान में आ जाता है। निज शुद्धात्म स्वरूप में लीन रहना ही सम्यक्चारित्र है, इन तीनों की एकता को आत्मध्यान, आत्मानुभव सम्यक्त्वाचरण व निश्चय संयमाचरण तथा शुद्धोपयोग कहते हैं, यही कर्म क्षय कारक मोक्षमार्ग परमानंदमयी परमात्म पद का दाता है। स्वभाव की महिमा से पर पदार्थों के प्रति रसबुद्धि, सुखबुद्धि टूट जाती है। स्वभाव में ही रस आता है तब दूसरा सब नीरस लगता है तभी अंतर की सूक्ष्म संधि ज्ञात होती है, यही सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान है । ऐसा नहीं होता है कि पर में तीव्र रुचि हो और उपयोग अंतर में प्रज्ञा छैनी का कार्य करे। व्रत, तप, त्यागादि भले हों पर वे साधन नहीं होते, साधन तो प्रज्ञा होती है। शुभाशुभ भाव से भिन्न मैं ज्ञायक हूँ यह प्रत्येक प्रसंग में याद रखना, भेदज्ञान का अभ्यास करना ही मनुष्य जीवन की सार्थकता है। भूमिकानुसार बाह्य वर्तन होता है परंतु प्रत्येक संयोग में ज्ञान वैराग्य शक्ति कोई और ही रहती है । मैं तो ज्ञायक ही हूँ ऐसी नि:शंकता होती है, ऐसा अचल निर्णय होता है तब स्वरूप अनुभव में अत्यंत नि:शंकता वर्तती है यही सम्यक्चारित्र मुक्ति मार्ग है। अतीन्द्रिय आनंद के वेदन में, आनंद स्वरूप प्रभु को, पर से भिन्न, दया, दानादि के भाव से स्पष्ट भिन्न देखने में आता है। शास्त्र सुनकर अथवा धारणा से उसे भिन्न जाना है ऐसा नहीं; क्योंकि यह तो राग मिश्रित जानना है परंतु राग से भिन्न निर्मल भेदज्ञान के प्रकाश द्वारा आत्मा को भिन्न देखना वही भिन्न जानना कहलाता है। दर्शन है क्या ? निर्मूर्त आतम राम का श्रद्धान रे। रेशान क्या, अदृश्य से ही भली विधि पहिचान रे॥ चारित्र क्या है, आत्मा में रमण ही चारित्र है। इन तीन योगों का मिलन ही, आत्म ध्यान पवित्र है॥ प्रश्न-दर्शन मोहांध इस प्रकार भिन्न अपने आत्म स्वरूप को क्यों नहीं जानता? *HARASHTRA इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - तस्य दिस्टि आवरनं, आवरनं मुक्ति ममल मग्गस्य। व्रत तव किरियं च अनिस्टं, चरनं आवरन थावरं पत्तं ॥ २२७॥ चरनं चरिय तवतं, चरनं संसार सरनि मुक्तस्य । ॐ दर्सन मोहंध सुभावं, अत्रित चरनं नरय वासम्मि।। २२८॥ अन्वयार्थ - (तस्य दिस्टि आवरनं) उसकी दृष्टि पर आवरण है अर्थात् * दर्शन मोहनीय मिथ्यात्व का पर्दा पड़ा है, जिससे वह अपने आत्म स्वरूप को नहीं देखता (आवरनं मुक्ति ममल मग्गस्य) मुक्ति के सही मार्ग अपने ममल स्वभाव पर पर्दा पड़ा है अर्थात् उसके परिणामों में ममल मोक्षमार्ग का ज्ञान श्रद्धान नहीं है (व्रत तव किरियं च अनिस्ट) वह व्रत तप आदि क्रियाओं का पालन करता है तो भी वह संसार में भ्रमण कराने वाली हैं (चरनं आवरन थावरं पत्तं) जिसके अंतर में आत्म ध्यान रूपी चारित्र का प्रकाश नहीं है अर्थात् सम्यक्चारित्र पर आवरण पड़ा है वह संसार में रत स्थावर योनि में जन्म पाता है। (चरनं चरिय तवत्तं) जो सम्यक्चारित्र का पालन करता है, अपने आत्म स्वरूप में लीन रहता, तप आदि पालता है (चरनं संसार सरनि मुक्तस्य) यह सम्यक्चारित्र संसार परिभ्रमण से मुक्त करने वाला है (दर्सन मोहंध सुभाव) दर्शन मोहांध का स्वभाव विपरीत होता है (अनित चरनं नरय वासम्मि) वह मिथ्याचारित्र का पालन करता है, हिंसादि को धर्म मानता है, आर्त-रौद्र ध्यान में रत रहता है जिससे नरक में वास करना पड़ता है। विशेषार्थ- सम्यकदर्शन सहित जो धर्म ध्यान व शुक्ल ध्यान रूपी चारित्र है वह मोक्ष का मार्ग है, वह कर्मों को क्षय कर संसार से छुड़ाने वाला है। जहाँ मिथ्यादर्शन सहित मिथ्याचारित्र है कुतप है, कुध्यान है, परिणामों में आर्त-रौद्र ध्यान है वह सब दुर्गति ले जाने वाला संसार का कारण है। दर्शन मोहांध की दृष्टि पर मिथ्यात्व का आवरण होता है उसको ममल मोक्षमार्ग का ज्ञान श्रद्धान नहीं है। मिथ्यात्व सहित व्रत तपादि क्रियाओं का पालन करता है, यदि ऐसे व्रतों से स्वर्ग में देव भी हो जावे तो वहाँ से आकर स्थावर होता है क्योंकि बिना सम्यक्त्व के सही मोक्षमार्ग का लाभ नहीं हो सकता, वीतरागता बिना कर्म क्षय नहीं होते। ૨૪૮ 市市政章些章命中* ----- -
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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