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गाथा-२२५,२२६-------
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- श्री उपदेश शुद्ध सार जी सम्यकदर्शन और सम्यक्ज्ञान सहित जो भव्य जीव दो प्रकार के चारित्र को धारण कर संयमी होता है वह मुक्ति मार्ग का पथिक है।
व्यवहार में अणुव्रत, महाव्रत क्रमश: श्रावक व साधु का आचरण पाला * जाता है क्योंकि सम्यक्त्व के साथ ज्ञान और चारित्र का प्रकाश हो जाता है तथापि अभी पूर्ण सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का होना शेष रह जाता है।
चौथे गुणस्थानवर्ती को अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, संज्वलन ऐसे बारह कषाय और हास्यादि नौ नोकषाय का उदय रहता है, इनको दूर करने के लिये बहिरंग साधु व श्रावक का चारित्र व अंतरंग आत्मध्यान रूप चारित्र को धारना पड़ता है। बिना स्वरूप गुप्ति आत्मध्यान के कर्मों की निर्जरा नहीं होती और संसार का भ्रमण दूर नहीं होता है।
दर्शन मोहांध मिथ्यादृष्टि अंतरंग में आत्म प्रतीति न रखता हुआ बाहर से श्रावक या मुनि का चारित्र पालता है तो वह सब मिथ्याचारित्र होता है जिससे संसार परिभ्रमण ही करना पड़ता है।
सम्यक् दृष्टि भव्य जीव दर्शन मोह और चारित्र मोह को नाशकर बाधा रहित, उपमा रहित, जन्म-मरण से रहित निर्विघ्न मोक्ष सुख को प्राप्त होता है।
मिथ्यादर्शन से सहित प्राणी को यदि देवेंद्र पद भी मिल जावे तो क्या लाभ है क्योंकि वह देवेन्द्र पद छूटने के पीछे एकेन्द्रिय स्थावर काय में उत्पन्न होता है इसलिये वह पदवी अहितकारी है। सम्यक्दर्शन सहित यदि नरक का वास मिल जावे तो श्रेष्ठ है क्योंकि नरक से निकलकर मनुष्य भव प्राप्त होगा कि जिसमें धर्म साधनाकर कर्मों का नाश करके अविनाशी मोक्षपद को प्राप्त किया जा सकता है।
शील का पालन, बारह प्रकार के तपों का तपना, चतुर्विध संघ को दान देना और पंच परमेष्ठियों की पूजा भक्ति करना, संयम को धारण कर पालन
करना, व्रत धारना, अनेक प्रकार के उपवास करना, यदि यह सम्यकदर्शन * से विभूषित हैं तो मोक्षसुख के कारण हैं । यदि यही आचरण मिथ्यादर्शन * सहित किये गये हैं तो पुण्यरूप तो हैं परंतु कमों का नाश नहीं कर सकते तब अनंत संसार की वृद्धि के ही कारण हैं।
इसी की विशेषता रूप आगे गाथा कहते हैं - * ** ****
दर्सन न्यान अनन्तं, अनन्त वीरी अनन्त चरनानि । दर्सन मोहंध पज्जावं, चरनं आवरन दुग्गए पत्तं ॥ २२५॥
अन्वयार्थ - (दर्सन न्यान अनन्तं) सम्यक्दर्शन सहित, सम्यक्चारित्र का पालन करने से अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान (अनन्त वीरी अनन्त चरनानि) अनंत वीर्य, अनंत सुख स्वरूप, अनंत चतुष्टय परमात्म पद प्रगट होता है (दर्सन मोहंध पज्जावं) दर्शन मोहांध पर्याय में रत रहता है जिससे (चरनं आवरन दुग्गए पत्तं) चारित्र पर आवरण डालकर दुर्गति का पात्र बनता है।
विशेषार्थ- सम्यकद्रष्टि जीव जब सम्यक्चारित्र में उन्नति करता है, शुक्ल ध्यान को जाग्रत करता है तब चार घातिया कर्मों को क्षय करके अनंत चतुष्टय का धारी केवलज्ञानी अरिहंत सर्वज्ञ परमात्मा हो जाता है। दर्शन मोहांध मिथ्यादृष्टि जीव शरीर में रत रहता है । मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी कषाय सहित बाह्य चारित्र का अहंकार करता हुआ दुर्गति में चला जाता है।
सम्यकदर्शन, सम्यज्ञान, सम्यक्चारित्र मयी आत्मा स्व समय है, शुद्धात्म स्वरूप है। मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र से युक्त, कर्म के उदय का फल भोगने में आसक्त चित्त आत्मा पर समय है।
संसारी भव्य प्राणी का परोपकारी सदा हित करने वाला, अहित का नाश करने वाला और अविनाशी शाश्वत सुख में ले जाकर धरने वाला सम्यक्दर्शन परम मित्र है।
संसारी जीवों का संसार में मिथ्यादर्शन मोह ही प्रबल बैरी है, जो बहुत काल तक दु:ख, जन्म-मरण, रोग, संयोग-वियोग रूप अनेक प्रकार के दु:ख और दुर्गति देता है।
प्रश्न- यह सम्यवर्शनशान चारित्र कैसे होता है? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - दर्सन अरूबरूवं, न्यानं च रूव चरन चारित्तं । सम्मत्त चरन चरनं, संजम चरनानि सुद्ध संजुत्तं ॥ २२६ ॥
अन्वयार्थ-(दर्सन अरूव रूवं) अरूपी आत्मा के स्वरूप को देखना, अनुभूति करना सम्यक्दर्शन है (न्यानं च रूव चरन चारित्तं) और आत्मा के सत्स्वरूप को जानना सम्यक् ज्ञान है तथा स्वरूप में लीन रहना ही सम्यक्चारित्र है (सम्मत्त चरन चरनं) एक सम्यक्त्वाचरण चारित्र होता है
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