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** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
गाथा- २१८-२२०***
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-63-6--15-5-16--16:
* स्वरूप को नहीं देखता (न्यानं आवरन वयन सभावं) ज्ञान पर आवरण डालता
है और जिनवाणी भी नहीं सुनता (सो वयनं नवि पिच्छइ) जिनेन्द्र के वचनों * को भी स्वीकार नहीं करता और न उन वचनों पर श्रद्धान लाता है अर्थात् देव
गुरु धर्म पर कोई श्रद्धान नहीं होता (नरयं बे इंदि अनेय कालम्मि) इससे मनुष्य से नरक और दो इन्द्रिय आदि में अनेक काल बिताना पड़ता है।
(दर्सन मोहंध अन्धं) दर्शन मोहांध मिथ्यात्व के नशे में ऐसा अंधा रहता है (न्यानं आवरन देइ सहकारं) कि वह ज्ञान पर आवरण करने वाला, अज्ञानमय उपदेश देता है तथा ऐसा ही सुनता है, उसी का सहकार करता है (असहावं च उवनं) वह स्वभाव से विपरीत भावों को अपने में व दूसरों में उत्पन्न करता है (विकलत्तय नंत नंत कालम्मि) जिससे वह अनंतकाल में अनंत बार विकलत्रय होता है।
विशेषार्थ-दर्शन मोहांध मिथ्यादृष्टि जीव जैसे अपने आत्मा का ज्ञान नहीं करता है, वैसे वह आत्मज्ञान संबंधी उपदेश पर भी ध्यान नहीं देता है अपितु उस उपदेश का निरादर करता है तथा स्वयं भी कभी आत्मज्ञान संबंधी बात नहीं करता है, निरंतर शरीर के राग बढ़ाने वाले वार्तालाप में फंसा रहता है, बहुत बकवाद करता है, विकथाओं में व परनिंदा में रंजायमान रहता है जिससे ऐसे कर्म का बंध करता है कि अनेक काल तक नरक और दो इन्द्रिय आदि में रहता है।
दर्शन मोहांध मिथ्यात्व में अंधा होता है और वह धर्म के ज्ञान में शून्य रहता है, वैसे वह दूसरों को भी उपदेश देकर स्वाभाविक आत्मज्ञान से दूर रखता है। शरीरासक्त, विषयासक्त रहता है तथा दूसरों को विषयों में फंसाता रहता है जिससे वह ऐसा कर्म बांधता है कि अनंतकाल तक बहुत बार दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चौ इन्द्रिय तिर्यंच होता है।
अज्ञानी ने अनादिकाल से अनंत ज्ञानादि समृद्धि से भरे हुए निज चैतन्य महल के ताले लगा दिये हैं और स्वयं बाहर भटकता रहता है । ज्ञान बाहर से * ढूंढता है, आनंद बाहर से ढूंढता है, सब कुछ बाहर से ढूंढता है। स्वयं * भगवान होने पर भी भीख मांगता रहता है।
अज्ञानी जीव शास्त्रों का रहस्य नहीं समझता अत: उसका समस्त ज्ञान कुज्ञान है। मिथ्यादृष्टि, ग्यारह अंग, नौ पूर्व का पाठी हो तो भी वह दर्शन मोहांध अज्ञानी है। आत्म अनुभव के बिना सब कुछ शून्य है, लाख कषाय की
मंदता करो या लाख शास्त्र पढ़ो किंतु आत्म अनुभव सम्यक्दर्शन बिना सब के कुछ व्यर्थ है।
अज्ञान और स्व स्वरूप के प्रमाद से दर्शन मोहांध में फंसा जीव अनंतकाल तक दो इन्द्रिय आदि दुर्गतियों में जन्म-मरण करता है।
जो जीव इस भ्रांति को निवृत्त करके शुद्ध चैतन्य निज अनुभव प्रमाण स्वरूप में परम जाग्रत होकर ज्ञानी होते हैं वह सदैव निर्भय रहते हुए मुक्ति को पाते हैं।
प्रश्न - दर्शन मोहांध इस विपरीत परिणमन से छुटकारा क्यों नहीं पाता?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - दर्सन मोहंध सुभावं, परिनइ आवर्न अन्यान सहकारं। परिनइ सहाव न दिह, तिरिय गए कुदेव जानेहि ॥ २१८ ॥ दर्सन मोहंध सुभावं, हितकारस्य अन्यान सहकार। हेयं कहंपि न दिई, विकलत्तय अनेय कालम्मि ॥ २१९ ।। दर्सन मोहंध अन्धं, कोमल परिनाम न्यान आवरनं। कोमल सहाव न दिई,निगोय वासं अनेय कालम्मि ॥ २२०॥
अन्वयार्थ - (दर्सन मोहंध सुभावं) दर्शन मोहांध का ऐसा स्वभाव, प्रकृति होती है कि (परिनइ आवर्न अन्यान सहकारं) उसका सारा परिणमन, क्रिया भाव पर्याय अज्ञान से ढका रहता है और वह उसी रूप सहकार करता है अर्थात् जैसे कर्म का उदय होता है तथा जिस रूप निमित्त संयोग मिलते हैं वह उसी में रत रहता है (परिनइ सहाव न दिटुं) उसका परिणमन निज आत्म स्वभाव की ओर नहीं होता है, न वह उसको देखता, न श्रद्धान करता है (तिरिय गए कुदेव जानेहि) जिससे वह तिर्यंच गति में जाता है अथवा भवनवासी व्यंतर आदि कुदेव होता है।
(दर्सन मोहंध सुभावं) दर्शन मोहांध की ऐसी परिणति होती है (हितकारस्य अन्यान सहकारं) कि वह अज्ञान में, संसारी प्रपंच में रहना ही अपने लिये हितकारी मानता है, कोई हित की बात कहता है तो विपरीत मानता है (हेयं कहंपि न दिटुं) उसको त्यागने योग्य क्या है, किसकी बात
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