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गाथा- २१३-२१७***
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* ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी * छोड़ दी है व ज्ञान मात्र निज स्वभाव की सावधानी रखते हैं, वे सिद्ध दशा को पाते हैं। ज्ञान मात्र के सिवाय अन्य किसी उपाय से कल्याण नहीं होता।
प्रश्न - ऐसे ज्ञान को उपलब्ध करने में दर्शन मोहांध किस कारण असमर्थ रहता है और उसका परिणाम क्या होता है?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - दर्सन मोहंध सहावं, न्यानं आवरन सुकिय सुभावं। दुषिय कम्म उववन्न, दुग्गइ गइ भावना होई॥२१३॥ दर्सन मोहंध विसेष, पज्जय रत्तो पज्जाव संजुत्तो। आवरनं न्यान सहावं, पज्जय आवरन बे इंदिया जुत्तं ॥ २१४ ॥ दर्सन मोहंध स उत्तं, अवयासंन्यान आवर्न सहकारं। अवयास नहु पिच्छइ, थावर उपत्ति अनेय कालम्मि॥ २१५ ॥
अन्वयार्थ - (दर्सन मोहंध सहावं) दर्शन मोहांध का ऐसा स्वभाव होता है कि (न्यानं आवरन सुकिय सुभावं) अपने स्वाभाविक स्वभाव पर ज्ञान का आवरण डालता है अर्थात् अज्ञान पूर्वक मनमानी मायाचारी करता है (दुषिय कम्म उववन्न) अशुभ दु:ख रूप पाप कर्म का बंध करता रहता है (दुग्गइ गइ भावना होई) दुर्गति जाने की भावना होती है।
(दर्सन मोहंध विसेषं) दर्शन मोहांध की यह विशेषता होती है (पज्जय रत्तो पज्जाव संजुत्तो) कि जिस पर्याय का धारी होता है उसी पर्याय में रत रहता है (आवरनं न्यान सहावं) उसका ज्ञान स्वभाव ढका रहता है अर्थात् वह अपने आत्म स्वरूप को जानता ही नहीं है (पज्जय आवरन बे इंदिया जुत्तं) पर्याय का इतना तीव्र मोह होता है जिससे दो इंद्रिय पर्याय में चला जाता है।
(दर्सन मोहंध स उत्तं) दर्शन मोहांध उसे कहते हैं (अवयासं न्यान आवर्न सहकारं) जो ज्ञानावरण कर्म को ही बढ़ाने का अभ्यास करता है अर्थात् निरंतर मिथ्यात्व अज्ञान में लिप्त रहता है (अवयास नहु पिच्छइ) वह अपने ज्ञान स्वभाव को न जानता है,न विश्वास करता है,न उसे जानने का प्रयास
करता है (थावर उपत्ति अनेय कालम्मि) जिससे उसे एकेन्द्रिय स्थावर काय 4 में बहुत काल बिताना पड़ता है।
विशेषार्थ - दर्शन मोहांध मिथ्यादृष्टि जीव का ऐसा स्वभाव होता है **** * **
कि वह अपने स्वाभाविक ज्ञान स्वभाव पर आवरण डालता है, जिससे उसके भाव आत्मा की तरफ बिल्कुल नहीं जाते, वह शरीर के सुख में मोही रहता है इसलिये अपनी अशुद्ध भावना से दु:ख रूप कर्म का बंध कर दुर्गति जाता है।
दर्शन मोहांध की यह विशेषता होती है कि वह जिस पर्याय में जाता है उसी पर्याय में रत एकमेक रहता है, शरीरासक्त होता है, जितनी इंद्रियां होती हैं, उन्हीं के विषयों में रत रहता है, उनकी पूर्ति में रात-दिन लवलीन रहता है, इसी कारण अपने ज्ञान स्वभाव को नहीं समझते हुए ज्ञानावरण कर्म का बंध करके दो इन्द्रियादि पर्याय में चला जाता है।
दर्शन मोह के उदय से अंध प्राणी आत्मज्ञान को न पाकर विषयों की तृष्णा में फंसा रहता है, मिथ्याज्ञान के वश अपने आत्म स्वरूप को न जानता है, न जानने का प्रयास करता है। आत्मा और ज्ञान की बात सुनता ही नहीं है, इस कारण वह तीव्र ज्ञानावरण कर्म का बंध करके एकेन्द्रिय स्थावर पर्याय में जाकर बहुत काल बिताता है।
दर्शन मोह को मंद किये बिना वस्तु स्वरूप समझ में नहीं आता और दर्शन मोह का अभाव किये बिना आत्मा अनुभव में नहीं आता।
स्व-पर प्रकाश का पुंज प्रभु तो शुद्ध ही है परंतु जो राग से भिन्न होकर उसकी उपासना करे, उसी के लिये वह शुद्ध है। द्रव्य सदा निर्लेप है। संयोग और रागादि से दृष्टि हटाकर एक समय का जिसका अस्तित्व है ऐसी पर्याय का लक्ष्य छोड़कर जो भगवान आत्मा निर्लेप है, उसकी दृष्टि करे तो सम्यकदर्शन हो तभी यह दर्शन मोह से छुटकारा होता है।
मिथ्यादृष्टि दर्शन मोहांध अनादि अनंत संसार में रुल रहा है, यह मनुष्य भव और सब शुभयोग पाकर भी जिसकी दृष्टि मान्यता नहीं बदलती वह दर्शन मोह से अंधा प्राणी संसार में दुर्गति का पात्र बनता है, इसी बात को आगे गाथा में कहते हैं - दर्सन मोहंध सुसमयं, न्यानं आवरन वयन सभावं । सो वयनं नवि पिच्छड़, नरयं बे इंदि अनेय कालम्मि॥२१६ ॥ दर्सन मोहंध अन्धं, न्यानं आवरन देइ सहकारं । असहावं च उर्वनं, विकलत्तय नंत नंत कालम्मि ॥२१७॥ अन्वयार्थ - (दर्सन मोहंध सुसमयं) दर्शन मोहांध अपने शुद्धात्म
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