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2-4-******* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
गाथा- २०९-२१२***
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स्वभाव रूप परिणमन करता है तब अनंतानंत पदार्थों का ज्ञाता, अनंत * चतुष्टयधारी केवलज्ञान स्वरूप हो जाता है (एयं ममल सहावं) और हमेशा * एक ममल स्वभाव रूप रहता है (दर्सन मोहंध हेय आवरनं) दर्शन मोहांध * हेय ज्ञेय का कोई विवेक नहीं करता।
(न्यानं कोमल रूवं) ज्ञान कोमल सरल स्वभाव रूप होता है (कोमल परिनवइ ममल सहकारं) सहज सरल ज्ञान ही ममल स्वभाव रूप परिणमता है अर्थात् जो सरल शांत सहज स्वभावी होता है, विनम्रता और प्रेम ही ज्ञानी की पहिचान है (ममलं ममल सहावं) ऐसा सम्यकज्ञानी अपने ममल स्वभाव के आश्रय से ममल स्वभाव में रहता है (दर्सन मोहंध कोमल आवरनं) दर्शन मोहांध का मार्दव भाव ढका रहता है वह कठोर और दुष्ट चित्त रहता है।
(न्यानं च दिस्टि ममलं) जहाँ ज्ञान और दृष्टि अर्थात् ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग दोनों अपने ममल स्वभाव में लीन होते हैं (ममल सहावेन केवलं न्यानं) बस इसी ममल ज्ञान स्वभाव में रहने से केवलज्ञान प्रगट हो जाता है (दिस्टं च नंत दिस्टिं) और फिर अनंत चतुष्टय स्वरूप दिखाई देने लगता है (दर्सन मोहंध दिस्टि आवरनं) दर्शन मोहांध के दृष्टि पर आवरण पड़ा रहता है, उसे अपना ज्ञान स्वभाव दिखाई नहीं देता।
विशेषार्थ- ज्ञान की शक्ति अपार है, ज्ञान जब शुद्ध होता है तब वह अनंत व अपार है तथा वही प्रत्यक्ष प्रमाण रूप स्पष्ट है । सकल पारमार्थिक प्रत्यक्ष केवलज्ञान ही है। चार घातिया कर्मों के नाश होने पर निर्मल केवलज्ञान प्रगट होता है जो उत्कृष्ट है व जो लोक अलोक को तीन काल सम्बंधी पर्यायों के साथ जानता है, जो ज्ञान मन व इंद्रिय की सहायता बिना क्रम रहित सर्व लोकालोक के मूर्तीक व अमूर्तीक द्रव्यों को उनके अनंतगुण व पर्याय सहित प्रत्यक्ष जानता है वही केवलज्ञान है।
सम्यक्ज्ञान का यह स्वभाव है जो वह यह जाने कि त्यागने योग्य क्या है व ग्रहण करने योग्य क्या है ? निश्चयनय से एक शुद्धात्मा ही ग्रहण * करने योग्य है, शेष सब परद्रव्य, परभाव व कर्म के निमित्त से होने वाले *पुण्य-पाप, रागादिभाव, गुणस्थानादि भाव व मार्गणादि पर्याय त्यागने योग्य * हैं। ऐसा भेदविज्ञान जिसको होता है वह परम उपादेय निज आत्मा में ही * रमण करता है जिससे एक ममल स्वभाव, केवलज्ञान प्रकाशित हो जाता है।
केवलज्ञान का फल तो परमात्म पद, वीतरागता मुक्ति है परंतु अल्पज्ञान ******* ****
रूप सम्यज्ञान का फल यह है कि वह इस बात को जाने कि ग्रहण करने योग्य व त्याग करने योग्य क्या है ? वैसे तो सर्व प्रकार के ज्ञान का फल अपने-अपने विषयों में हित व अहित का ज्ञान तथा अज्ञान का नाश है।
सम्यक्ज्ञानी को अनंतानुबंधी कषाय का उदय न होने से तथा अन्य कषायों के यथासंभव मंद उदय से परिणामों में मृदुता, विनयभाव व अनुकंपा भाव रहता है। इसी से वह प्रशम अर्थात् शांत भाव, संवेग अर्थात् संसार से वैराग्य व धर्म से प्रेम, करुणा भाव तथा आस्तिक्य भाव रखता है। मंद कषाय से ज्ञान की भावना करता है, तब ज्ञान बढ़ते-बढ़ते केवलज्ञान में परिणमन कर जाता है।
सम्यज्ञानी को जो निर्मल आत्म श्रद्धा होती है उसी के अभ्यास से वह गुणस्थानों पर चढ़ते-चढ़ते सयोग केवली गुणस्थान पर चढ़ जाता है जहाँ केवलज्ञान और केवलदर्शन का प्रकाश हो जाता है।
दर्शन मोहांध मिथ्यादृष्टि इस बात को नहीं समझता है, उसको हेय, ज्ञेय, उपादेय का ज्ञान नहीं होता है । कषाय के तीव्रोदय से मार्दव भाव या विनय भाव नहीं पाया जाता है, उसको अपने स्वार्थवश परिणामों में बड़ी कठोरता रहती है । काम पड़ने पर दीन दुखियों को बहुत कष्ट देता है। सम्यक्दर्शन के अभाव में अपने दर्शन गुण को ढका हुआ ही रखता है।
वास्तव में ज्ञान रूपी दीपक बिना हितकारी व अहितकारी बातों का ज्ञान नहीं हो सकता है।
ज्ञान है, ज्ञेय भी है, कोई किसी के कारण से नहीं है । केवलज्ञानी समस्त स्व-पर को जानते हैं। पर को जानने वाला ज्ञान भी निश्चय से स्वयं का ही है परंतु पर को जानता है, ऐसा कहना सो व्यवहार है । इसका अर्थ ऐसा न समझना कि ज्ञान पर को जानता ही नहीं है। ज्ञान का स्वभाव निश्चय से स्व-पर प्रकाशक है। स्व-पर प्रकाशकता कोई व्यवहार अपेक्षा से नहीं है।
आत्म स्वभाव को लक्ष्यगत कर उसी में एकाग्र होना ही ज्ञान की महिमा है, निश्चयनय तो ज्ञान का एक अंश है वह तो पर्याय है, उस पर्याय के आश्रय से कोई मुक्ति नहीं होती परंतु निश्चय नय तथा उसका विषय भूत जो त्रिकाल अभेद ममल स्वभाव है, उस ममल स्वभाव के अनुभव से मुक्ति होती है।
जिन्होंने पुरुषार्थ द्वारा मोह का नाश किया है अर्थात् पर की सावधानी
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