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* ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी * दर्शन मोहांध जीव जिन वचनों पर आवरण डालता है।
(न्यान सहावं उत्तं) जिनवाणी में जिनेन्द्र परमात्मा ने आत्मा को ज्ञान * स्वभाव कहा है (सहकारे न्यान सहाव आयरनं) जो ऐसे ज्ञान स्वभाव को * स्वीकार करता है तथा उस रूप आचरण करता है (न्यान अनन्तानंतं)
उसका ज्ञान अनंतानंत, अनंत चतुष्टय केवलज्ञान स्वरूप हो जाता है (दर्सन मोहंध सहाव आवरनं) दर्शन मोहांध ऐसे अपने ज्ञान स्वभाव पर आवरण डालता है।
विशेषार्थ-जिनवाणी में जिनेन्द्र परमात्मा ने आत्मा को ज्ञान स्वभाव कहा है, जो जिन वचनों का श्रद्धान करता है, अपने ज्ञान स्वभाव का आलंबन लेता है, उस ज्ञान स्वभाव की अनंत विशेषतायें हैं। ज्ञान से ज्ञान की वृद्धि होती है और वह ज्ञान अनंतानंत लोकालोक को प्रकाशित करने वाला केवलज्ञान स्वरूप प्रगट होता है । दर्शन मोहांध को जिन वचनों का श्रद्धान ही नहीं होता, वह तो जिन वचनों पर आवरण डालता है इसलिये अपने ज्ञान स्वभावी आत्मा का श्रद्धान नहीं करता।
जिसे जिनेन्द्र के वचनों पर यथार्थ श्रद्धान होता है उसे अपने ज्ञान स्वभावी आत्मा का भी श्रद्धान होता है तब ही वह ज्ञान स्वभाव में आचरण करके स्वसंवेदन के द्वारा ज्ञान से ज्ञान की वृद्धि करता हुआ, केवलज्ञान स्वरूप हो जाता है अर्थात् स्वयं केवलज्ञान स्वरूप सर्वज्ञ परमात्मा हो जाता है।
मिथ्यादृष्टि को इस बात पर विश्वास नहीं होता, वह जिन वचनों पर आवरण डालता है अर्थात् विपरीत मान्यता, उल्टा श्रद्धान करता है।
यहाँ तो जो ज्ञान आत्मा के लक्ष्य पूर्वक होता है, उसे ही ज्ञान कहते हैं। जो ज्ञान इन्द्रिय के लक्ष्य से होता है, शास्त्र के लक्ष्य से होता है उसे ज्ञान ही नहीं कहते। त्रिकाली ज्ञायक भगवान निज शुद्धात्मा के आश्रय बिना ग्यारह अंग के ज्ञान को भी ज्ञान नहीं कहते वह क्षायोपशमिक खंड-खंड ज्ञान है सो दु:ख का कारण है।
आत्मज्ञान के लिये बहुत शास्त्र पढ़ने की बात नहीं है। जो जिन वचनों का श्रद्धान करता है, उसे इस बात का बोध जागता है कि स्वयं भगवान
आत्मा अनंत-अनंत गुण संपन्न ज्ञानानंद स्वरूप है, इसकी महिमा लाकर * स्वसन्मुख हो, इतनी सी बात है।
भगवान सर्वज्ञ की दिव्य देशना से निकली हुई वीतरागी वाणी परंपरा ******* ****
गाथा- २०९-२१२** ***** से गणधरों सद्गुरुओं द्वारा प्रवाहित होती आई है। जिन्हें इस वीतराग वाणी में कथित तत्त्वों का स्वरूप विपरीत अभिनिवेश रहित हृदयंगम हुआ है उन भव्य जीवों के भव का अंत आ जाता है।
एक ज्ञान को ख्याल में लेते ही उसके साथ के अनंत गुण एक साथ ख्याल में आ जाते हैं। ऐसा एक ज्ञान स्वरूप आत्मा ख्याल में आने पर सम्यकदर्शन होता है, उसके साथ अनंत गुण आंशिकरूप से खिले बिना नहीं रहते और इसी का अभ्यास साधना करने से ज्ञान से ज्ञान बढ़ता है और केवलज्ञान स्वरूप प्रगट हो जाता है।
प्रश्न - जब इतनी सरल सहज बात है, जिसमें बाहर कुछ करने का ही नहीं है,मात्र ज्ञान स्वभाव का आलंबन लेने से परमात्म पद और मुक्ति होती है फिर दर्शन मोहांध इसको स्वीकार क्यों नहीं करता?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - न्यानं परिनइ उत्तं, परिनवइन्यान लोकलोकांतं । परिनइ प्रमान सुद्ध, दर्सन मोहंध परिनए आवरनं ॥ २०९ ॥ न्यान हेय संजुत्तं, हितमित परिनवडूनंतनंताई। एवं ममल सहावं, दर्सन मोहंध हेय आवरनं ॥२१०॥ न्यानं कोमल रूवं, कोमल परिनवइ ममल सहकारं। ममलं ममल सहावं, दर्सन मोहंध कोमल आवरनं ॥ २११ ॥ न्यानं च दिस्टि ममलं, ममल सहावेन केवलं न्यानं । दिस्टंच नंत दिस्टि, दर्सन मोहंध दिस्टि आवरनं ॥ २१२ ॥
अन्वयार्थ - (न्यानं परिनइ उत्तं) ज्ञान की शक्ति अपार है (परिनवइ न्यान लोकलोकांतं) ज्ञान का परिणमन लोकालोक को जानता है अर्थात् केवलज्ञान की एक समय की पर्याय में लोकालोक झलकता है (परिनइ प्रमान सुद्ध) यह ज्ञान का परिणमन प्रमाण से शुद्ध है अर्थात् यही ज्ञान शुद्ध प्रत्यक्ष प्रमाण है (दर्सन मोहंध परिनए आवरनं) दर्शन मोहांध इस ज्ञान के परिणमन पर आवरण डालता है अर्थात् इसे स्वीकार नहीं करता।
(न्यान हेय संजुत्तं) ज्ञान, ज्ञेय हेय उपादेय सबको जानता है (हितमित ___परिनवइ नंतनंताई) जब ज्ञान अपने हितकारी इष्ट निज शुद्धात्म स्वरूप ज्ञान
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