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________________ ** E-E- SE-52 ********** श्री उपदेश शुद्ध सार जी * आत्मा में से जो अतीन्द्रिय आनंद युक्त निर्मल अंश प्रगट होता है वह ही धर्म * है और इस ज्ञान स्वभाव की साधना से तीनों प्रकार के कर्म क्षय होते हैं। जिसे अपने शुद्ध अखंड एक परम पारिणामिक भाव स्वरूप निज शुद्धात्मा का ही निरंतर अवलंबन वर्तता है, उसको निज शुद्धात्म स्वरूप के आधार से धर्म कहो या शांति कहो सब प्रगट होता है और यही मुक्ति का मार्ग है। प्रश्न - जब ज्ञान स्वभाव की ऐसी महिमा है फिर दर्शन मोहांध क्यों विपरीत चलता है? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - न्यान सहाव स उत्तं, न्यानं दर्सेइनन्त सहकारं । दर्सन मोहंध पज्जावं, अन्मोयं पज्जाव दुग्गए पत्तं ॥ २०५॥ न्यानं च विधि अवयासं,लोयालोयंचममल सभावं। मल मुक्कं न्यान अन्मोयं, दर्सन मोहंध न्यान आवरनं ॥ २०६॥ अन्वयार्थ -(न्यान सहाव स उत्तं) ज्ञान स्वभाव उसे कहते हैं (न्यानं दर्सेइ नन्त सहकारं) जो ज्ञान अनंत पदार्थों को एक समय में जान लेता है (दर्सन मोहंध पज्जावं) दर्शन मोहांध पर्याय में ही उलझा रहता है (अन्मोयं पज्जाव दुग्गए पत्तं) पर्याय का आलंबन रखने, उसी की अनुमोदना करने से दुर्गति का पात्र बनता है। (न्यानं च विधि अवयासं) ज्ञान स्वभाव का अभ्यास करने से ज्ञान में वृद्धि होती है (लोयालोयं च ममल सभावं) जिससे ममल स्वभाव में लोकालोक प्रकाशित होता है (मल मुक्कं न्यान अन्मोयं) ज्ञान स्वभाव का आलंबन रखने, अनुमोदना करने से सर्व कर्म मलों से मुक्त हुआ जाता है (दर्सन मोहंध न्यान आवरनं) दर्शन मोहांध ऐसे ज्ञान स्वभाव पर आवरण डालता है। विशेषार्थ-दर्शन मोहांध को अपने ज्ञान स्वभाव का श्रद्धान नहीं * होता है, वह अपनी शारीरिक शक्ति को ही सब कुछ जानता है। पर्याय का *अहंकार रखता है। शरीरादि पर्याय से भिन्न आत्मा ज्ञान स्वभावी है, जिस ज्ञान स्वभाव में समस्त पदार्थ देखने जानने में आते हैं, दर्शन मोहांध ऐसे ज्ञान स्वभाव को स्वीकार नहीं करता और शरीरादि पर्याय में ही रत रहता है 24 जिससे दुर्गति जाता है। **** * ** गाथा- २०५-२०८**** * * ज्ञान स्वभाव की साधना का अभ्यास करने से ज्ञान बढ़ता है और लोकालोक को प्रकाशित करने वाला ममल केवलज्ञान स्वभाव प्रगट हो जाता है। ज्ञान स्वभाव का आलंबन लेने अनुमोदना करने से ही कर्मों से मुक्त हुआ जाता है। दर्शन मोहांध ऐसे ज्ञान स्वभाव पर आवरण डालता है। अनंत गुण स्वरूप आत्मा उसके एक रूप ज्ञान स्वरूप को दृष्टि में लेकर उस एक को ध्येय बनाकर उसमें एकाग्रता का प्रयत्न करना, यही केवलज्ञान स्वरूप प्रगट करने का उपाय है। साधक जीव प्रारंभ से अंत तक ज्ञान स्वभाव की ही मुख्यता रखकर अन्य सबको गौण करते जाते हैं, उससे साधक दशा में निश्चय की मुख्यता के बल से शुद्धता की वृद्धि ही होती जाती है और अशुद्धता कर्म मलादि दोष क्षय होते जाते हैं। इस प्रकार निश्चय ज्ञान स्वभाव की मुख्यता के बल से पूर्ण केवलज्ञान होने पर वहाँ लोकालोक को प्रकाशित करने वाला ममल स्वभाव ही रहता है। यह आत्म स्वभाव है और यह अन्य भाव है, ऐसा बोध बीज आत्मा में परिणमित होने से अन्य भाव में सहज ही उदासीनता उत्पन्न होती है और वह उदासीनता अनुक्रम से उस अन्य भाव से सर्वथा मुक्त करती है । दर्शन मोहांध, अपने ज्ञान स्वभाव आत्मा पर आवरण डालकर पर्याय में लिप्त रहता है जिससे दुर्गति का पात्र बनता है। प्रश्न- ऐसा कौन सा कारण है.जो दर्शन मोहांध अपने ज्ञान स्वभाव आत्मा का श्रद्धान नहीं करता? - इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - न्यानं नंत विसेषं, न्यानं न्यानं च विधि सभावं । अन्मोयं वयन सहावं, दर्सन मोहंध वयन आवरनं ॥ २०७॥ न्यान सहावं उत्तं, सहकारे न्यान सहाव आयरनं । न्यान अनन्तानंतं, दर्सन मोहंध सहाव आवरनं ॥ २०८॥ अन्वयार्थ- (न्यानं नंत विसेषं) ज्ञान की अनंत विशेषता है (न्यानं न्यानं च विधि सभावं) ज्ञान से ज्ञान की वृद्धि होती है यह उसका स्वभाव है (अन्मोयं वयन सहावं) जो जिन वचनों का श्रद्धान करता है, आलंबन लेता है, वह अपने ज्ञान स्वभाव की साधना करता है (दर्सन मोहंध वयन आवरनं) KKAKKAR १४०
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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