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गाथा-२०४HEREHRH
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* ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी * ही सच्चा ज्ञान है (दर्सन मोहंध पज्जाव आवरनं) दर्शन मोह से पर्याय में * आवरण रहता है, वह जीव अपने ज्ञान स्वभावी आत्मा को नहीं जानता है।
विशेषार्थ-ज्ञान और परमज्ञान यही है कि भेदज्ञान पूर्वक इस शरीरादि * से भिन्न मैं एक अखंड अविनाशी चेतन तत्त्व भगवान आत्मा हूँ, यह शरीरादि
मैं नहीं और यह मेरे नहीं हैं तथा मैं आत्मा शुद्धात्मा परमात्मा हूँ, सिद्ध के समान केवलज्ञान स्वभावी परमात्मा हूँ, ऐसे ज्ञान स्वभाव को स्वीकार करने से दर्शन मोह मिथ्यात्व आदि छूट जाता है । आत्मा तो ममल ज्ञान स्वभावी ही है, कर्म संयोगी दशा तो वर्तमान अशुद्ध पर्याय है, अज्ञानी दर्शन मोहांध जीव पर्यायी आवरण को ही देखता जानता है।
सम्यज्ञान आत्मा व आत्मा से भिन्न पर पदार्थों को भिन्न-भिन्न जानता है तथा आत्मा का स्वभाव केवलज्ञान मय पहिचानता है। जिसके तीव्र मिथ्यात्व का उदय होता है उसे आत्मा और अनात्मा का यथार्थ ज्ञान नहीं होने पाता है, यथार्थ ज्ञान से ही मिथ्यात्व हटता है और सम्यक्दर्शन होता है, तब ही ज्ञान को सम्यक्त्व सहित सम्यक्ज्ञान कहते हैं।
दर्शन मोहांध जीव, विकार तथा स्वभाव को एक मान रहा है अत: यथार्थ विचार नहीं कर पाता । वह यदि मिथ्या धारणा में अवकाश बनाकर जाने कि विकार कृत्रिम है तथा स्वभाव निरुपाधि ममल स्वरूप है तो भेदज्ञान का अवसर आये परंतु अज्ञानी ने तो उन दोनों में एकता मानी है। दया दानादि से धर्म की मान्यता अर्थात् मिथ्यादर्शन के बल से वह उन दोनों में भेद नहीं करता । व्यवहार करे, कषाय को मंद करे तो धर्म हो, ऐसी विपरीत श्रद्धा, स्वभाव व विभाव को पृथक् जानने रूप विचार भी नहीं करने देती।
स्व-पर का श्रद्धान होने पर सम्यक्ज्ञान होता है, अपने को पर से भिन्न जाने तो स्वयं के आश्रय से संवर निर्जरा रूप दर्शन, ज्ञान, चारित्र का उपाय करे और परद्रव्यों का अपने से भिन्न रूप श्रद्धान होने पर, पर के
लक्ष्य से होने वाले पुण्य-पाप व आश्रव, बंध को छोड़ने का श्रद्धान होता है। * स्वयं को पर से भिन्न परमात्म स्वरूप जानने पर निज हितार्थ प्रवर्तन करे
तथा पर को अपने से भिन्न जानने पर उनके प्रति उदासीन हो व रागादिक * छोड़ने का श्रद्धान हो, इस प्रकार सामान्य रूप से जीव-अजीव तत्त्व दोनों को भिन्न जाने तो मोक्ष हो।
द्रव्य सदा निर्लेप है, स्वयं ज्ञाता भिन्न ही तैरता है, जिस प्रकार स्फटिक ************
मणि में प्रतिबिम्ब दिखने पर भी स्फटिक निर्मल है, उसी प्रकार जीव में विभाव ज्ञात होने पर भी जीव निर्मल है, निर्लेप है। ज्ञायक रूप परिणमित होने पर पर्याय में निर्मलता निर्लेपता होती है । यह सब जो कषाय, विभाव ज्ञात होते हैं, वे ज्ञेय हैं, मैं तो ज्ञायक हूँ, ममल ज्ञान स्वभावी हूँ ऐसा पहिचाने, परिणमन करे यही ज्ञान और परम ज्ञान है।
प्रश्न-इस ज्ञान स्वभाव की क्या महिमा है?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - न्यानंचसुकिय सुभावं, न्यानंच विपिय तिविहि कम्मान। न्यानं अनन्त रूवं, दंसन मोहंध न्यान आवरनं ।। २०४॥
अन्वयार्थ-(न्यानं च सुकिय सुभावं) ज्ञान आत्मा का अपना स्वभाव है (न्यानं च षिपिय तिविहि कम्मानं) इस ज्ञान स्वभाव में रहने से तीनों प्रकार के कर्मक्षय होते हैं (न्यानं अनन्त रूवं) ज्ञान का स्वभाव अनंत है, ज्ञान की कोई मर्यादा नहीं है (दंसन मोहंध न्यान आवरनं) दर्शन मोहांध अपने ज्ञान स्वभाव पर आवरण डालता है।
विशेषार्थ- ज्ञान आत्मा का स्वभाव है, यद्यपि मति श्रुत ज्ञान इंद्रिय व मन की सहायता से होते हैं तथापि यदि आत्मा न हो तो नहीं हो सकते हैं। ज्ञानावरण के उदय व क्षयोपशम की विचित्रता से इन्द्रिय व मन सहकारी होते हैं। अवधिज्ञान, मन: पर्ययज्ञान में स्वतंत्रता से आत्मा ही जानता है परंतु अवधि ज्ञानावरण और मन: पर्यय ज्ञानावरण का क्षयोपशम होने से कम जानता है। केवलज्ञान शुद्ध स्वाभाविक ज्ञान है, जो प्रत्यक्ष रूप से क्रम रहित सर्व द्रव्यों की सर्व पर्यायों को जानता है. केवलज्ञान अनंतज्ञान स्वरूप है। केवलज्ञान की एक समय की पर्याय में तीन काल और तीन लोक के समस्त जीव और पुद्गलादि द्रव्य,उनका त्रिकालवी परिणमन एक समय में झलकता है, ऐसा जिसको ज्ञान के स्वरूप का श्रद्धान है वह सम्यक्त्वी जीव, ज्ञान स्वभाव की साधना से तीनों प्रकार के कर्म-द्रव्य कर्म, भाव कर्म, नोकर्म को क्षय करता है, ऐसी ज्ञान स्वभाव की महिमा है । दर्शन मोहांध जीव ऐसे ज्ञान स्वभाव पर आवरण डालता है।
आत्मा ज्ञान और आनंद आदि निर्मल गुणों की शाश्वत खान (भंडार) है। सत्समागम से श्रवण, मनन के द्वारा उसकी यथार्थ पहिचान करने पर
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