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*-*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
रसियं) शरीर के पांचों इंद्रियों के विषय भोगों का रसिक होता है, उसे अपने अतीन्द्रिय स्वभाव का रस नहीं आता (पज्जय दिस्टि सरनि संसारे) पर्याय दृष्टि होने से अर्थात् जिस मनुष्य आदि पर्याय में होता है उसी में एकत्व रखता है इससे संसार का परिभ्रमण करता है ।
(दर्सति असुद्ध दर्स) दर्शन मोहांध, अशुद्ध भाव व अशुद्ध पर्याय को ही देखता है ( रूव सहावेन सरनि संसारे) रूपी पदार्थ शरीरादि के स्वभाव में रत रहता है, इसी से संसार में भ्रमता है (अन्रित अचेत सहावं) उसका उपयोग नाशवान झूठे जड़ पदार्थों में ही लगा रहता है (दर्सन मोहंध दुग्गए पत्तं) इस प्रकार दर्शन मोह से अंधा दुर्गति का पात्र बनता है।
(दर्सन मोहंध असुद्धं) दर्शन मोहनीय कर्म महान अशुद्ध है, इस दर्शन मोह में अंधा जीव (कल लंक्रित कर्म दर्स दर्सेई) शरीर संबंधी क्रियाकांड और कर्मोदय को ही देखता रहता है (पज्जावं पिच्छंतो) पर्याय को ही पहिचानता है अर्थात् जैसा जो कुछ संयोगी, शरीरादि पर्याय मिली है उसी में एकमेक रहता है, उसकी तरफ ही दृष्टि रखता है (अन्यानं अन्मोय निगोय वासम्मि) अज्ञान का आलंबन, आश्रय होने से निगोद में वास करता है।
विशेषार्थ दर्शन मोहांध मिथ्यादृष्टि जीव इस वर्तमान प्राप्त शरीर में ही आपा मानकर यही मैं हूँ, इसी के क्षणिक व मिथ्या सुख में लीन रहता है। पांचों इंद्रियों का दासपना किया करता है, इस शरीर में खूब विषय भोग करूँ, ऐसी रात-दिन भावना करता है, इससे उसका संसार परिभ्रमण मिटता नहीं है।
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मिथ्यादर्शन के उदय से शुद्ध मोक्षमार्ग का श्रद्धान नहीं हो पाता, उसके भावों में संसार का राग नहीं मिटता, विषय लोलुपता कम नहीं होती, शरीर का सुखियापना नहीं जाता, इसी से वह पर समय रूप होकर अशुभ कर्म बांधता है और नरक, निगोद तिर्यंच गति में जाकर पैदा होता है।
दर्शन मोह की मिथ्यात्व प्रकृति के तीव्र उदय से आत्मा का श्रद्धान नहीं होता है, न उसे यह श्रद्धान होता है कि शुद्धात्मानुभव ही मोक्षमार्ग है । कदाचित् धर्म का श्रद्धान भी करता है तो शरीर की क्रिया को ही बाहरी तप व्रत को ही धर्म मान लेता है। अंतरंग परिणामों पर दृष्टि नहीं देता है, वह शरीर के सुखों का राग नहीं त्यागता है, इसी से अज्ञान में लिप्त निगोद तक में चला जाता है।
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गाथा २०३*-*-*-*-*-*
प्रथम, स्वरूप सन्मुख होकर निर्विकल्प अनुभूति होती है, आनंद का वेदन होता है, तब ही यथार्थ सम्यक्दर्शन हुआ कहलाता है, इसके अलावा प्रतीति यथार्थ नहीं कहलाती। प्रथम तत्त्व विचार करके दृढ़ निर्णय करे, पीछे अनुभूति होती है। जिनकी तत्त्व निर्णय में ही भूल है उनको तो अनुभूति कहाँ से होवे ? नहीं हो सकती । मात्र विकल्प से तत्त्व विचार किया करे, वह जीव भी सम्यक्त्व प्राप्त नहीं कर सकता ।
धर्म-शरीर वाणी धन आदि से नहीं होता क्योंकि वे तो सभी आत्मा से भिन्न अचेतन पर द्रव्य हैं, उनमें आत्मा का धर्म नहीं है और मिथ्यात्व, हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य आदि पापभाव या दया, दान, पूजा, भक्ति आदि पुण्य भाव से भी धर्म नहीं होता क्योंकि वह दोनों विकारी भाव हैं। आत्मा की निर्विकारी शुद्ध दशा ही धर्म है।
भेदज्ञान से शून्य होने के कारण रागादि ज्ञेय मेरे हैं, ऐसा जानता हुआ अज्ञानी उनका कर्ता बनता है । ज्ञेय ज्ञायक की भिन्नता को अनादि काल से न जानने से स्वयं को ज्ञेय रूप मानता हुआ ज्ञान परिणाम को अज्ञान रूप से कर्ता हुआ, दर्शन मोहांध अज्ञानी संसार में परिभ्रमण करता है।
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- इस दर्शन मोह रूप अज्ञान से छूटने का उपाय क्या है ? आत्मज्ञान रूप सम्यक्ज्ञान ही इस अज्ञान मिथ्यात्व से छूटने का एक मात्र उपाय है। जब तक सम्यक्दर्शन पूर्वक सम्यक्ज्ञान नहीं
प्रश्न समाधान -
होता तब तक जीव इस दर्शन मोहांध रूप अज्ञान से संसार में रुलता है। प्रश्न यह आत्मज्ञान रूप सम्यक् ज्ञान कैसे होता है, इसका स्वरूप क्या है, इसमें दर्शन मोह क्या करता है ?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - न्यानं च परम न्यानं न्यानं सहकार मिच्छ तिक्तं च ।
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न्यानं च ममल सहावं, दर्सन मोहंध पज्जाव आवरनं ॥ २०३ ॥
अन्वयार्थ (न्यानं च परम न्यानं) ज्ञान स्वभाव आत्मा ही परम ज्ञान केवलज्ञान स्वरूप परमात्मा है अर्थात् भेदविज्ञान पूर्वक जो अपने आत्म स्वभाव को जानते हैं वही केवलज्ञान स्वभावी परमात्मा को जानते हैं (न्यानं सहकार मिच्छतिक्तं च) ऐसे आत्मज्ञान सम्यक्ज्ञान का सहकार करने से मिथ्यात्व छूट जाता है (न्यानं च ममल सहावं) अपने ममल स्वभाव को जानना
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