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________________ ******** *-*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी जीव मिथ्या संसार की तरफ ही देखता है। - विशेषार्थ सम्यकदृष्टि को दृढ़ श्रद्धान होता है कि शुद्धोपयोग ही परम हितकारी है, वह निज शुद्धात्मा पर ही ध्यान रखता है, वस्तु स्वरूप को देखना ही द्रव्य दृष्टि कहलाती है, ध्रुवतत्त्व को देखना ही (अनुभूति रत) शुद्ध दृष्टि होती है। सम्यक्त्व का इष्टनिज शुद्धात्मा है, वह अपने इष्ट निज शुद्धात्मा की ही अनुभूति करता है, उसे ही देखता है, जिससे लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञान प्रगट होता है। अनंत चतुष्टयमयी परमात्म स्वरूप ही इष्ट मुक्ति का शुद्ध कारण है । दर्शन मोहांध अपने आत्म स्वरूप से विमुख संसार शरीर आदि अनिष्ट की तरफ ही देखता है, उसे अपने आत्म स्वरूप का श्रद्धान नहीं होता, वह विपरीत मान्यता से पर की ओर ही देखता है। समय- समय की पर्याय स्वतंत्र है, एक समय में एक पर्याय व्यक्त है व अन्य अनन्त पर्याय सामर्थ्य तो द्रव्यरूप से विद्यमान है, जो ऐसा जाने तो दृष्टि द्रव्य सन्मुख हुए बिना न रहे, यही द्रव्य दृष्टि शुद्ध दृष्टि कहलाती है। निरपेक्ष स्वभाव के भान बिना, निमित्त का यथार्थ ज्ञान नहीं होता, स्वभाव स्व पर प्रकाशक है, उसमें स्व के ज्ञान बिना पर का भी ज्ञान नहीं होता । उपादान स्वतंत्रता के ज्ञान बिना, निमित्त का ज्ञान नहीं होता, निश्चय बिना व्यवहार का ज्ञान नहीं होता। जैसे- त्रिकाली द्रव्य स्वतंत्र है, निरपेक्ष है, वैसे ही उसकी समय-समय की पर्याय भी निरपेक्ष व स्वतंत्र है । ज्ञान स्वभावी हूँ, मेरे स्वभाव में संसार नहीं है ऐसे भानपूर्वक धर्मी जीव संसार के स्वरूप का विचार करते हैं। जिसे संसार रहित, स्वभाव की दृष्टि प्रगट नहीं हुई उसे संसार के स्वरूप का यथार्थ विचार नहीं होता। जिसे स्वभाव का भान व भावना हो वही जीव अपने इष्ट को संजोता है व परम सुखी परमानंदमय होता है। जिसे स्वभाव का भान व भावना नहीं होती वह दर्शन मोहांध बाह्य विषयों की भावना करता है। अज्ञानी जीव निज स्वभाव की भावना छोड़कर संयोग की भावना करता है, वह विषयों की तृष्णा से दुःखी ही है। जगत के समस्त जीव सुख की इच्छा करते हैं परंतु सुख का उपाय नहीं खोजते, वे दुःख की इच्छा नहीं करते परंतु दुःख के कारण, मिथ्यात्व आदि में निरंतर संलग्न रहते हैं। सुख का उपाय, मुक्ति की प्राप्ति तो आत्मा १३७ गाथा २००-२०२ ******* का सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान कर उसमें एकाग्र होना है, उसके बजाय अज्ञानी जीव बाह्य पदार्थ जुटाकर उससे सुखी होना चाहता है। ॐ ह्रीं श्रीं स्वरूप ही, यह आतम परमातम है । देव गुरु व धर्म आत्मा, स्वयं सिद्ध शुद्धातम है । निज स्वरूप का बोध हमें मां जिनवाणी करवाती है। ध्रुव तत्व को देखने वाली, दृष्टि शुद्ध कहाती है । दर्शन ज्ञान के भेद से चेतन, बाहर पकड़ में आता है। आगम की परिभाषा में, ये ही उपयोग कहाता है ॥ दर्शन ज्ञान उपयोग की शुद्धि, भव से पार लगाती है। ध्रुवतत्त्व को देखने वाली, दृष्टि शुद्ध कहाती है ॥ ज्ञान स्वरूप आत्मा है, ऐसे गुण गुणी के भेद के विकल्प आत्मानुभव करने के क्रम में बीच में आयेंगे अवश्य; परंतु उनका आश्रय सम्यक् दर्शन में नहीं है। सम्यदृष्टि तो वैसे विकल्प रूप व्यवहार का शरण लेकर अटकते नहीं हैं किंतु उन्हें भी छोड़ने योग्य समझकर अंतर में शुद्धात्मा को उन विकल्पों से भिन्न अनुभव करते हैं, ऐसा अनुभव ही वीतराग का मार्ग है। प्रश्न शुद्ध दृष्टि सम्यक् दर्शन न होने पर, दर्शन मोहांध मिध्यादृष्टि का क्या होता है ? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - दर्सन मोहंध सहावं, अन्रित अनिस्ट असहाव संजुतं । कलं सहावं रसियं, पज्जय दिस्टि सरनि संसारे ॥ २०० ॥ दसैँति असुद्ध दर्स, रूब सहावेन सरनि संसारे । अन्रित अचेत सहावं, दर्सन मोहंध दुग्गए पत्तं ॥ २०९ ॥ दर्सन मोहंथ असू, कल लंकित कर्म दर्स दसैँई । पज्जावं पिच्छंतो, अन्यानं अन्मोय निगोय वासम्मि ॥ २०२ ॥ अन्वयार्थ - ( दर्सन मोहंध सहावं) दर्शन मोहांध अज्ञानी मिथ्यादृष्टि का स्वभाव होता है कि वह (अन्रित अनिस्ट असहाव संजुत्तं) अन्रित नाशवान क्षणभंगुर पर्याय में, अनिष्ट शरीरादि संसार, संयोग में, असहाव, परजीव, परभाव आदि जो अपना स्वभाव नहीं है उसमें लीन रहता है (कलं सहावं 货到
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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