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********** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
दर्सन अरूव रूवं, दर्सन दर्सेइ मोष मग्गस्य ।
दर्सन ममल सहावं, दर्सन मोहंध समल दर्सति ॥ १९७ ।।
अन्वयार्थ ( दर्सन अनंत दर्स) सम्यक्दर्शन अपने अनंत चतुष्टय स्वरूप को देखता है (सूषम दर्सेइ कम्म विलयंति) जहाँ शरीर मन वाणी से भिन्न अतीन्द्रिय सूक्ष्म स्वभाव की अनुभूति देखना होता है, वहाँ सारे कर्म विला जाते हैं (दसैँति नंतनंतं) अपने अनंत गुणमयी, अनंत चतुष्टय धारी आत्म स्वरूप की अनुभूति देखना ही सम्यक्दर्शन है (दर्सन मोहंध अदर्सनं दिट्टं) दर्शन मोहांध जो नहीं देखना चाहिये अर्थात् अशुद्ध पर्याय पुद्गलादि पर की तरफ ही देखता है।
( दर्सन अरूव रूवं) सम्यक्दर्शन अपने अरूपी, अमूर्तीक आत्म स्वभाव का श्रद्धान करना है ( दर्सन दर्सेइ मोष मग्गस्य) सम्यक्दर्शन होते ही मोक्ष का मार्ग दिखाई देने लगता है (दर्सन ममल सहावं) अपने ममल स्वभाव की श्रद्धा अनुभूति हो जाती है यही सम्यक्दर्शन है (दर्सन मोहंध समल दर्रांति) दर्शन मोहांध समल स्वरूप, अशुद्ध पर्याय कर्मादि को ही देखता है।
विशेषार्थ सम्यक्दर्शन आत्मा का एक गुण है, जिसके प्रकाश होने पर यह अपना आत्मा सर्व भावकर्म, द्रव्यकर्म व नोकर्म से भिन्न अनंत चतुष्टय का धारी, अरिहंत परमात्म स्वरूप दिखाई देता है। जब सम्यक्त्वी जीव निज शुद्धात्मानुभूति करता है तब वीतराग भाव से कर्मों की निर्जरा होती है, दर्शन मोहांध मिथ्यादृष्टि को इसकी दृष्टि नहीं होती है।
मैं सिद्ध के समान शुद्ध अमूर्तीक निर्विकार आनंदमयी आत्मा हूँ, इस आत्मा के ध्यान से कर्मों की निर्जरा होती है, आत्मानुभव ही यथार्थ मोक्षमार्ग है, ऐसा सच्चा श्रद्धान सम्यक् दृष्टि को होता है, दर्शन मोहांध अपने को रागी -द्वेषी अशुद्ध पर्याय वाला कर्माधीन मानता है।
आत्म स्वभाव को लक्ष्यगत कर उसी में एकाग्र होना सम्यक्दर्शन है । सम्यक दृष्टि जीव निज शुद्ध भाव द्वारा शुद्ध जीव को निश्चय से जानता है, पर से या राग से नहीं वरन् अपने ज्ञान से अनुभूतियुत जानता है, ऐसे भान वाला आत्मा, पर से अस्पर्शित आत्मा निज भान किये पश्चात् सर्वसंग से विमुक्त होता है। मैं सर्वसंग से विमुक्त हूँ, सिद्ध के समान शुद्ध परमानंदमयी परमात्मा हूँ, प्रथम ऐसी दृष्टि होने पर ही पर्याय में सर्वसंग विमुक्त होता है।
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गाथा - १९६-१९९ ************** जो आत्म स्वभाव का अनादर कर पर वस्तु से सुख पाना मानता है, वह जीव दर्शन मोहांध मिथ्यादृष्टि है। अंतर में महान चैतन्य निधि परमात्मा विराजमान है, उसका तो आदर नहीं करता व जड़ में सुख मानता है, ऐसे जीव के भले ही बाह्य में लक्ष्मी के ढेर लगे हों परन्तु भगवान उसे पापी कहते हैं ।
द्रव्यदृष्टि की अपेक्षा से ऐसा कहा जाता है कि आत्मा में विकार ही नहीं है, विकार तो पुद्गल का कार्य है परंतु ऐसी द्रव्य दृष्टि किसे होती है कि जिसे पर्याय की स्वतंत्रता का भान हो । अभी तक तो जो पर्याय को ही स्वतंत्र, स्वाधीन न जाने, उसे तीनों काल की पर्याय के पिंड रूप, द्रव्य की दृष्टि कैसे हो ? पर्याय में विकार है उन्हें कर्मों ने नहीं करवाये हैं परन्तु वे मेरे अपराध के कारण से हैं, ऐसे अंश को स्वतंत्र जाने तथा यह भी कि उस अंश जितना ही त्रिकाली स्वभाव नहीं है तो द्रव्य दृष्टि हो; परंतु ऐसा माने कि कर्म ही विकार कराते हैं तो उस जीव को पर्याय का भी भान नहीं है व उसे द्रव्यदृष्टि नहीं है।
प्रश्न- ऐसी द्रव्य दृष्टि के लिये क्या करना पड़ता है ? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - दर्सन दिट्ठि स दिहं, इस्टं संजोय दर्सए सुद्धं ।
सुद्धं च ममल दर्स, दर्सन मोहंध अनिस्ट दसैँति ।। १९८ ।। दर्से इस्ट दर्स, इटं दर्सेइ लोय अवलोयं । इस्टं अनन्तनंतं, दर्सन मोहंध मिच्छ दसैँति ।। १९९ ।।
अन्वयार्थ ( दर्सन दिट्टि स दिट्ठ) द्रव्य दृष्टि से देखना ही शुद्ध दृष्टि है (इस्टं संजोय दर्सए सुद्धं ) जो अपने इष्ट का संयोग करता है अर्थात् ध्रुव स्वभाव को देखता है वही शुद्ध देखता है (सुद्धं च ममल दर्स) परम शुद्ध ममल स्वभाव की अनुभूति ही शुद्ध दर्शन है (दर्सन मोहंध अनिस्ट दर्रांति) दर्शन मोहांध जीव अपने इष्ट निज शुद्धात्मा को न देखकर शरीरादि पर पर्याय, अनिष्टकारी संसार की तरफ ही देखता है।
(दर्से इस्ट दर्स) शुद्ध दृष्टि अपने इष्ट निज शुद्धात्मा को ही देखता है (इस्टं दर्सेइ लोय अवलोयं) अपने इष्ट निज शुद्धात्मा को देखने से लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञान स्वभाव प्रगट होता है (इस्टं अनन्तनंतं) अनंत चतुष्टय स्वरूप ही अपना इष्ट हितकारी है (दर्सन मोहंध मिच्छ दसैंति) दर्शन मोहांध
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