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गाथा - १९६HRIRIKH
卷卷卷 E-HEH
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****** श्री उपदेश शुद्ध सार जी * जैसा पढ़ो सुनो, वैसे होवें भाव । जैसा देखो करो, वैसी होय कषाय ।
वर्तमान जीवन में जिस वातावरण, परिस्थिति, संयोग में जीव रहता * है,जो कुछ पढ़ता, सुनता, देखता है, वैसे ही परिणाम और तद्रूप ही आचरण
होता है, ऐसा ही निमित्त-नैमित्तिक संबंध है । जो भेदविज्ञान पूर्वक तत्त्व निर्णय कर लेते हैं, वस्तु स्वरूप जान लेते हैं, सम्यक्दृष्टि ज्ञानी होते हैं, वह तो इस ओर ध्यान ही नहीं देते परंतु जब तक अज्ञान दशा में दर्शन मोह से अंधपना है तब तक इसका विवेक विचार आवश्यक है अन्यथा यही निमित्त संयोग सहज में दुर्गति का पात्र बना देते हैं।
नैतिकवान कुल, धन संपन्नता, निरोग शरीर, दीर्घ आयु यह सभी प्राप्त करके भी अंतर में उत्तम सरल स्वभाव को पाना दुर्लभ है । परिणाम में तीव्र वक्रता हो, महा संक्लिष्ट परिणाम हो, क्रोध, मान, माया, लोभ की तीव्रता हो तो धर्म का विचार कैसे हो?
विषय-कषाय का लंपटी हो तथा सरल व मंद कषाय रूप परिणाम न हो उसे तो धर्म पाने योग्य पात्रता ही नहीं है। सरल परिणाम होना ही कोई धर्म नहीं है परंतु सरल परिणाम होना भी दुर्लभ है तो फिर धर्म की दुर्लभता क्या कहें?
बहुत से जीवों को सरल परिणाम होने पर भी सतसमागम मिलना दुर्लभ है। कोई-कोई लौकिक जन भी मंद कषाय वाले होते हैं परंतु वीतरागी सर्वज्ञ शासन के तत्त्व को समझाने वाले का सत्समागम मिलना अति दुर्लभ है।
अज्ञानी एक ओर तो मंद कषाय करता है परंतु दूसरी ओर कुदेव कुगुरु कुशास्त्र के संग में बहकर विपरीत श्रद्धा का पोषण कर मनुष्य भव ही खो देता है।
वीतरागी देव, गुरू, शास्त्र का समागम मिलना महा दुर्लभ है। धर्म का यथार्थ स्वरूप समझाने वाले, ज्ञानी पुरुषों का समागम महा भाग्य से मिलता है।
सत्य समझने की योग्यता हो तब ऐसी सच्ची वाणी सुनने को मिलती है। अनंतबार मनुष्य भव पाया परंतु आत्मा की चाह न हुई, जिससे पुनः पुनः * संसार में भटका अतः आत्मा की समझ कर लेना ही योग्य है, मैं आत्मा * शुद्धात्मा परमात्मा हूँ ऐसा श्रद्धान ज्ञान ही इस संसार से तारने वाला है।
जिसने चैतन्य को ध्येय न बनाकर केवल पर को ही ध्येय बनाया है, ***** * * ***
वह दर्शन मोहांध जीव स्व विषय को चूककर, पर विषयों में रमता है और राख पाने के लिये अमूल्य चिंतामणि रत्न को जला देता है।
दर्शन मोहांध अज्ञानी जीव की पराधीन दृष्टि होने से शास्त्रों में से भी वैसा ही आशय उद्धृत कर, शास्त्रों को अपनी मान्यतानुकूल आशय वाला बनाना चाहते हैं, गुरु गम बिना स्वच्छंदित होने वाला जीव शास्त्रों का अर्थ उल्टा ही करता है।
सम्यक्दृष्टि ज्ञानी शास्त्राभ्यास का रसिक होता है तथा धर्मबुद्धि पूर्वक निन्दनीय कार्यों का त्यागी होता है। मद्य, मांस, मधु, त्रस जीव युक्त भोजन, परस्त्री आदि का त्यागी होता है।
जैन शास्त्र के वीतरागता, स्वतंत्रता के न्याय के मर्म को समझने वाला * श्रोता ही विशेषरूप से शोभित होता है। यदि उसे आत्मज्ञान न हो तो वह
उपदेश का मर्म नहीं समझ सकता । जिसे देव, गुरु, शास्त्र की सही श्रद्धा नहीं है उसकी तो सामान्य श्रोताओं में भी गिनती नहीं है।
जो शास्त्र तो सुनते हैं परंतु कहते हैं कि आप किसी के परोपकार करने की बात तो नहीं करते, लोगों को रोटी नहीं मिलती, काम नहीं मिलता अत: उसका ख्याल रखने की बात तो नहीं करते और यह आत्मा-आत्मा की बात करते हो इसमें क्या रखा है ? इस प्रकार जिन्हें तत्त्व की बात रुचिकर नहीं लगती वे एकांत पापबंध करते हैं।
अज्ञानी की उदासीनता में केवल शोक ही होता है क्योंकि उसे यह पता ही नहीं है कि एक पदार्थ की पर्याय में अन्य पदार्थ की पर्याय अकिंचित्कर है; अत: वह पर द्रव्य की पर्याय को बुरा जानकर द्वेष पूर्वक उदासीन भाव करता है तथा सम्यकदर्शन सम्यक्ज्ञान न होने से कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र की मान्यता करके तीव्र मिथ्यात्व से निगोद का पात्र बनता है।
प्रश्न - जब सम्यदर्शन ही इस हितकारी है तो दर्शन मोहांध इसे स्वीकार क्यों नहीं करता?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - दर्सन अनंत दस, सूषम दर्सेइकम्म विलयंति । दसति नंतनंतं, दर्सन मोहंध अदर्सनं दिटुं ॥ १९६ ॥
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