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गाथा- १९३-१९५***
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* ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी * भाव की प्राप्ति का प्रयोजन प्रगट किया हो, वे शास्त्र ही पढ़ने व सुनने * योग्य हैं।
जिन शास्त्रों में श्रृंगार भोग कौतूहलादि के पोषण द्वारा राग भाव की * तथा हिंसा युद्धादि के अनुमोदन द्वारा द्वेष भाव की अथवा अतत्त्व श्रद्धान के पोषण द्वारा मोह भाव की पुष्टि की हो वे शास्त्र नहीं, शस्त्र हैं अत: ऐसे शास्त्रों को न पढ़ना चाहिये, न सुनना चाहिये।
प्रश्न - शास्त्र पुराण तो कोई से हों उनके पढ़ने सुनने में क्या हानि है?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - श्रुतं च विपनिक रूवं, विपिओकम्मान तिविहिजोएन। विकहा विसन अश्रुतं, दर्सन मोहंध अश्रुतं पिच्छड़ ॥१९३ ।। सास्वतय रूव संश्रुतं, अत्रित असत्य अश्रुतं जानेहि। श्रुतं जिन उत्त परं, दर्सन मोहंध अश्रुत परिनामं ॥१९४॥ श्रुत अश्रुतं न पिच्छदि, गुन दोसं नवि बुज्झए अंध। अंधं अन्ध सहावं, दर्सन मोहंध निगोय वासम्मि ॥१९५॥
अन्वयार्थ - (श्रुतं च षिपनिक रूवं) शास्त्र वह है जो क्षायिक स्वरूप अरिहंत परमात्मा द्वारा कहा गया हो (पिपिओ कम्मान तिविहि जोएन) जिसके पढ़ने से त्रिविध योग के द्वारा कर्मों का क्षय होता है (विकहा विसन अश्रुतं) जिसमें विकथा-व्यसनों की चर्चा हो वह शास्त्र नहीं है, कुशास्त्र है (दर्सन मोहंध अश्रुतं पिच्छइ) दर्शन मोहांध अशास्त्र को ही जानता है, उन्हें ही पढ़ता सुनता है।
(सास्वतय रूव संश्रुतं) जो अनादि निधन शाश्वत स्वरूप को बताने वाला है वह सत्शास्त्र है (अनित असत्य अश्रुतं जानेहि) जो मिथ्या है, कल्पित है, वह कुशास्त्र है ऐसा जानना चाहिये अर्थात् जिनमें कपोल कल्पित मन गढंत बातें संसारी विषय-कषाय का पोषण करने वाली लिखी हों वह सब
कुशास्त्र जानो (श्रुतं जिन उत्त परं) शास्त्र वही उत्कृष्ट है जो जिनेन्द्र द्वारा *कथित है (दर्सन मोहंध अश्रुत परिनाम) दर्शन मोहांध अशास्त्र को ही पढ़ता * है उसी रूप परिणमन, परिणाम करता है।
(श्रुत अश्रुतं न पिच्छदि) जो शास्त्र कुशास्त्र को नहीं पहिचानते (गुन दोसं नवि बुज्झए अंधं) जो गुण दोषों को नहीं जानते वह अंधे हैं (अंधं अन्ध सहावं) अंधे का स्वभाव ही अंधा होता है ऐसा (दर्सन मोहंध निगोय वासम्मि) दर्शन मोहांध निगोद में वास करता है।
विशेषार्थ- क्षायिक भाव वाले अरिहंत परमात्मा होते हैं जो वीतराग विज्ञानमय उपदेश देते हैं। सत्शास्त्र वही है जिसके पढ़ने से अपने क्षायिक स्वरूप परम पारिणामिक भाव का बोध जागे तथा त्रिविध योग द्वारा कर्मों का क्षय होवे, जो अनादि निधन शाश्वत स्वरूप आत्म तत्त्व को बताने वाला है वही सत्शास्त्र है, जो जिनेन्द्र द्वारा कथित वस्तु स्वरूप, द्रव्य की स्वतंत्रता और स्वयं के पुरुषार्थ से मुक्ति की प्राप्ति होना बताते हैं । जिन शास्त्रों के पढ़ने से अनादि कालीन अज्ञान मिथ्यात्व विलाता है, अपने सत्स्वरूप का बोध जागता है, सम्यक्दर्शन सम्यज्ञान प्रगट होता है और त्रिविध योग की साधना से समस्त कर्मों का क्षय होकर मुक्ति की प्राप्ति होती है वही सत्शास्त्र है।
जो विषय-कषाय वर्द्धक अज्ञानियों द्वारा एकांत कथन रूप, कपोल कल्पित मिथ्या आडंबर को बढ़ाने वाले, पाप क्रियाकांड में फंसाने वाले हैं वह सब शास्त्र कुशास्त्र हैं। जिसमें लोक मूढता, देव मूढ़ता, पाखंडी मूढता का पोषण हो, कुदेवादि की पूजा भक्ति का विधि विधान हो, गहीत मिथ्यात्व का पोषण हो, पर के आश्रय से धर्म या मुक्ति बताई गई हो, वह सब अश्रुत कुशास्त्र हैं, उन्हें न पढ़ना चाहिये, न सुनना चाहिये, न उनकी श्रद्धा मान्यता करना चाहिये।
अज्ञानी सच्चे-झूठे शास्त्रों को नहीं पहिचानता है, वह गुण दोषों को नहीं जानता, सबको बराबर एक सा मानता है। जैसे-अंधे का स्वभाव होता है उसको सबमें अंधकार ही अंधकार दिखाई देता है, इसी प्रकार दर्शन मोह से अंधा जीव अपने हित-अहित का कोई विवेक न करता हुआ कुदेव कुगुरु कुशास्त्र की मान्यता करके तीव्र मिथ्यात्व में रत हो निगोद में वास करता है।
स्वाध्याय, सत्संग करने से विवेक बुद्धि जाग्रत होती है। अब किनका स्वाध्याय सत्संग किया जाये, यह बात बड़ी गंभीर विचारणीय है।
इसके लिये कुछ सूत्र हैंजैसा खाओ अन्न, वैसा होवे मन । जैसा पिओ पानी, वैसी बोलो वाणी।
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