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*-華克·尔惠-箪惠-紫-華華
****** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
का बोध आत्म कल्याण की भावना नहीं होती, सद्गुरुओं का सत्संग और सद्ग्रन्थों अध्यात्म शास्त्रों का स्वाध्याय अध्ययन करे तो इससे छूट सकता है।
प्रश्न क्या संसारी जीव स्वाध्याय सत्संग नहीं करता ?
समाधान करता तो है परंतु कैसे गुरुओं का सत्संग और किन शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिये, इसका विवेक नहीं होता। लोक मूढ़ता, साम्प्रदायिक मान्यता से बंधा बिल्कुल सीमित संकुचित रहता है। सत्य का निर्णय करने के लिये स्वयं का विवेक चाहिये ।
संसारी जीव, मन को आत्मा और पुण्य को धर्म मानता है तथा सामाजिक मान्यता में बंधे लोगों को गुरु और साम्प्रदायिक ग्रन्थों को शास्त्र मानता है इसलिये अपना कोई निर्णय नहीं कर पाता ।
सद्ग्रन्थ, शास्त्र कैसे होते हैं और दर्शन मोहांध कैसे
प्रश्न मानता है ?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - शुचत उपपन्नं सुतं चन्यान दंसन समग्गं ।
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श्रुतं च मग उवएस, दर्सन मोहंथ कुश्रुत अन्मोयं ।। ९९९ ।। श्रुतं च अप्पर मइओ, श्रुतं च सुर विंजनस्य पद सहियं ।
श्रुतं च जिनयति वयनं, दर्सन मोहंघ विकह श्रुतं च ।। १९२ ।।
अन्वयार्थ - (श्रुतं च श्रुत उववन्नं) शास्त्र वह है जो द्वादशांग वाणी से उत्पन्न हुआ हो अर्थात् जो वीतरागी, सर्वज्ञ, हितोपदेशी आप्त अर्थात् परमात्मा द्वारा कहा गया हो ( श्रुतं च न्यान दंसन समग्गं) शास्त्र वह है जो सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान का निर्णय कराता हो ( श्रुतं च मग उवएस) शास्त्र वह है जिसमें मोक्षमार्ग का उपदेश हो ( दर्सन मोहंध कुश्रुत अन्मोयं) दर्शन मोहांध कुश्रुत की अनुमोदना करता है।
( श्रुतं च अष्यर मइओ) शास्त्र वह है जो अक्षय स्वभाव को बताने वाला अक्षरमयी है (श्रुतं च सुर विंजनस्य पद सहियं) शास्त्र वह है जो स्वर व्यंजन पद सहित हो अर्थात् जिसमें यथार्थ वस्तु स्वरूप का निर्णय हो, चाहे वह भजन में हो, गद्य में हो या पद्य में हो (श्रुतं च जिनयति वयनं ) शास्त्र वह है जो जिनेन्द्र की वाणी रूप हो, जो वीतरागी संतों द्वारा कहा गया हो ( दर्सन
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गाथा- १९१,१९२*-*-*-*-*-*-*मोहंध विकह श्रुतं च ) दर्शन मोहांध विकथाओं की किताबों को शास्त्र कहता है।
विशेषार्थ - जो शास्त्र, श्री जिनेन्द्र परमात्मा जो वीतरागी सर्वज्ञ हितोपदेशी होते हैं, उनकी द्वादशांग वाणी के आधार से बना है व जिसमें रत्नत्रय स्वरूप मोक्षमार्ग का उपदेश है वही सुशास्त्र है जिसमें सत्य वस्तु स्वरूप या यथार्थ निर्णय कहा गया हो, जिसका खंडन न हो सके, जो प्रत्यक्ष परोक्ष प्रमाण से बाधित न हो, जो तत्त्वों का उपदेश करने वाला व जो सर्व का हितकारी हो, जिसमें किसी जाति-पांति सम्प्रदाय क्रिया कांड का उपदेश न हो तथा जो कुमार्ग का खंडन करने वाला हो, जैसा धर्म का सत्य स्वरूप है उसी अर्थ का बोध कराने वाला हो, गाथा, भजन, गद्य, पद्य में किसी भाषा में हो, जिससे अपने अक्षय स्वरूप ध्रुव तत्त्व शुद्धात्मा का श्रद्धान ज्ञान प्राप्त हो वही सत्शास्त्र है ।
जिसमें एकांत पक्ष क्रियाकांड पूजा पाठ व संसार मार्ग की पुष्टि हो वह कुशास्त्र है। जिसमें राजकथा, चोरकथा, स्त्रीकथा, भोजनकथा आदि संसार के विषय कषाय का पोषण करने वाली पापवर्द्धक बातें हों, वह सब कुशास्त्र हैं। दर्शन मोहांध अज्ञानी मिथ्यादृष्टि ऐसे कुशास्त्रों को ही पढ़ता सुनता तथा इसकी ही मान्यता करता है।
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केवली भगवान की दिव्यध्वनि में संपूर्ण रहस्य एक साथ अनावृत होता है, उत्कृष्ट श्रोता के समझने की जितनी योग्यता है, उतना संपूर्ण विषय भगवान की वाणी में एक साथ आता है। ज्ञान है, ज्ञेय भी है, कोई किसी के कारण से नहीं है। शास्त्र तो शास्त्र के कारण से है, विकल्प से नहीं। विकल्प, विकल्प से है, शास्त्र से नहीं तथा ज्ञान, ज्ञान से है शास्त्र के कारण नहीं, ऐसा अनेकांत स्वरूप है। तत्त्व ज्ञान का मूल सर्वज्ञ है। सर्वज्ञ भगवान ने जिस साधन से तत्त्वज्ञान साधा व वाणी में जो साधन बतलाया, उसे पहिचाने, उस अनुरूप देव, गुरु, शास्त्र को पहिचाने उसे ही यथार्थ तत्त्व की प्राप्ति होती है, अन्य को नहीं ।
कोई शास्त्र, कोई भी गाथा अथवा शब्द या किसी भी अनुयोग की बात करो उन सभी का तात्पर्य वीतरागता है। वीतरागता बढ़े और कषाय घटे ऐसा जिसका प्रयोजन हो वही सत्शास्त्र है। मोक्षमार्ग तो वीतराग भाव है अतः जिन शास्त्रों में किसी भी प्रकार से राग-द्वेष, मोह भावों का निषेधकर वीतराग
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