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*-*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
अर्थात् कुगुरु की बातों में लगा मिथ्याज्ञान से नरक का बीज बोता है।
(गुरुं च षिपनिक रूवं) सद्गुरु क्षायिक सम्यक् दृष्टि जिनमुद्राधारी वीतरागी कर्मों के क्षय करने वाले होते हैं (अगुरुं अभाव सयल उक्तं च) अगुरु में इन सब भावों का अभाव कहा गया है (तस्य गुनं अन्मोयं) जो कोई ऐसे अगुरु कुगुरु के गुणों की अनुमोदना करता है, उनका समागम सेवा भक्ति करता है (दर्सन मोहंध निगोय वासम्मि) दर्शन मोह से अंधा प्राणी निगोद में वास पाता है।
विशेषार्थ - सुगुरु सूक्ष्म आत्म तत्व के अनुभवी होते हैं । यह आत्मा मन वचन काय द्वारा नहीं जाना जाता है इसलिये अलख है। आत्मा, आत्मा द्वारा जाना जाता है। क्षपणक साधु भावलिंग व द्रव्यलिंग दोनों के धारी होते हैं, कर्मों का क्षय करते हैं। समस्त आरंभ-परिग्रह त्यागी निर्ग्रन्थ आत्मज्ञानी साधु ही सच्चे गुरु होते हैं।
अगुरु कुगुरु स्वयं मिथ्यात्व में लिप्त रागी -द्वेषी मिथ्या आडंबर में रत संसार में घुमाने वाले पाप-पुण्य में लगाने वाले, संसारी बातें ही बताते हैं और स्वयं भी उसी प्रकार बाह्य क्रियाकांड में उलझे रहते हैं। दर्शन मोहांध को सुगुरु कुगुरु की कोई पहिचान नहीं है, भेदविज्ञान सम्यक्ज्ञान मिथ्याज्ञान का कोई भेद नहीं होता, वह इस बात की परीक्षा नहीं करता है कि सुगुरु में क्या होना चाहिये। उसे गुण दोष का कोई विचार नहीं होता। अगुरु कुगुरु की मान्यता करके संसार में तीव्र मिथ्यात्व सहित विषय कषायों में रत होकर नरक निगोद आदि दुर्गतियों का पात्र बनता है ।
अज्ञानी जीवों को यह बात ही नहीं जंचती कि आत्मा पुण्य-पाप रहित है और आत्मा की जो धर्म क्रिया (निज स्वभाव साधना) है वह उनके लक्ष्य में ही नहीं आती, वे तो जड़ की, शरीर की क्रिया में धर्म मानकर अधर्म का ही सेवन करते हैं।
बाह्य क्रिया में तो धर्म नहीं; परंतु दया दान भक्ति पूजा के शुभ भाव में भी धर्म नहीं है। संपूर्ण जगत में ज्ञाता दृष्टा रूप रहना ही आत्मा का धर्म है । जगत में जितने भी उपद्रव के कारण होते हैं वे सब रौद्र ध्यान युक्त कुगुरु और आर्तध्यान युक्त अगुरुओं से ही बनते हैं, जो पाप कर उल्टा हर्ष करते हैं, सुख मानते हैं उनका उपदेश निष्फलित ही होता है। वे तो मूर्च्छित समान अति प्रमादी होकर पापों में ही डूबे रहते हैं। ऐसे कुगुरुओं के संग से
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गाथा १८८-१९० ॥
दुर्गति और नरक निगोद का वास होता है।
ज्ञानी की दृष्टि तो संसार से छूटने की है अतः वह राग रहित निवृत्त स्वभाव की मुख्य भावना व आदर में सावधानी से प्रवृत्त रहता है फिर भी वह यदि किसी अतिचार में रत हो गया हो तो भी उससे छूटकर शांत ज्ञान स्वभाव में ही स्थिर होना चाहता है परंतु जो ऐसा मानता है कि संयोग पलटा दूँ तथा क्रोधादि करने योग्य हैं, उसके तो श्रद्धा में ही स्थूल विपरीतता है।
ज्ञानी के तो वीतराग दृष्टि ही मुख्य है, उसमें तो वह तनिक भी क्षति नहीं होने देता, हाँ यदि चारित्र में निर्बलता के कारण अतिचार हो जाये तो निंदा करके खेद को प्राप्त होता है, मनमानी नहीं करता कि ऐसा दोष गृहस्थ दशा में हो तो कोई हानि नहीं है, जो ऐसा करता है वह तो स्वच्छंदी मिथ्यादृष्टि है ।
सम्यक दृष्टि को भले ही (पूर्व में) अज्ञानदशा में किसी नरकादि का आयु बंध हो गया हो परंतु सम्यक्दर्शन सहित जीव को तो नरकादि का आयु बंध होता ही नहीं है, सम्यक्दर्शन की ऐसी महिमा है।
प्रश्न- जब सम्यक् दर्शन धर्म की ऐसी महिमा है फिर दर्शन मोहांध जीव को उसका श्रद्धान विश्वास क्यों नहीं होता ?
समाधान - कुदेवादि अगुरुओं के जाल में फंसा अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव इस बात का निर्णय ही नहीं कर पाता कि क्या हितकारी इष्ट है और क्या अहितकारी अनिष्ट है। वह दर्शन मोह में अंधा इतना भ्रमित भयभीत रहता है कि उसका अपनी आत्मा की तरफ लक्ष्य ही नहीं जाता। कुटुम्ब परिवार पुत्र आदि की संभाल में इतना तल्लीन रहता है कि पाप-पुण्य का विवेक भी नहीं कर पाता। मोह के कारण लोभ की प्रवृत्ति बढ़ जाती है, अपने शरीर का भी ध्यान नहीं रखता, खुद चाहे जैसा भूखा-प्यासा मारा-मारा फिरता है । पुत्र परिवार की सुरक्षा संभाल में ही लगा रहता है, उसे अपनत्व कर्तृत्व का भूत लगा रहता है।
प्रश्न- यह स्थिति क्यों रहती है, जब इतने सारे शुभ योग मनुष्य भव आदि मिले हैं फिर वह आत्मोन्मुख क्यों नहीं होता ?
समाधान - सच्चे देव गुरु धर्म का सत्संग और सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय नहीं करता, संसार के जन्म-मरण के चक्र से छूटने, मुक्त होने की भावना नहीं होती, मोह के चक्कर में ही घूमता रहता है इसलिये अपने आत्म स्वरूप
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