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________________ -15-5-5 长长长长长长 16- *** ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी गाथा-१८८-१९० -----H-HI- HEE (गुरुं च दर्सन मइओ) गुरु वही है जो सम्यक्दर्शन का धारी है (गुरुं च से जीव निंदा योग्य है। राग, पुण्य आदि व्यवहार रत्नत्रय द्वारा पंच पद नहीं * न्यान चरन संजुत्तो) गुरु वही है जो सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र सहित है। पाते क्योंकि यह भाव तो अभव्य को भी होते हैं इसलिये केवल व्यवहार में अर्थात् रत्नत्रय के धारी ही सच्चे गुरु होते हैं (मिथ्या सल्य विमुक्कं) जो रहने वाले जीव, पंच पद गुरु की श्रेणी में नहीं आते। * मिथ्या शल्यादि से रहित हैं (दर्सन मोहंध सल्य गुरुवं च) दर्शन मोहांध अज्ञानी लोक में कुछ भी खरीदने जायें तो उसकी भी पूरी परीक्षा करते हैं, तब मिथ्यात्व आदि शल्यधारी को गुरु मान लेता है। अपने आत्म हित के लिये गुरु कुगुरु की परीक्षा न होगी तो कहीं भी ठगाये जा विशेषार्थ- सच्चा गुरु वही है जो वस्त्रादि समस्त आरंभ-परिग्रह का सकते हैं, कोई कहते हैं कि अपने को परीक्षा करने का क्या प्रयोजन है? जो त्यागी है। शास्त्रों का ज्ञाता, वस्तु स्वरूप जानने वाला, परम शांत स्वभावी हों उन्हें मान लो; परंतु इस प्रकार ऐसा मानने से काम नहीं चलता, धर्म अपने शुद्धात्म स्वरूप का अनुरागी, ज्ञान, ध्यान, साधना में रत रहता है, अपूर्व तत्त्व है। जो राग, पुण्य व निमित्त के आश्रय से धर्म होना बतलाते हैं जिसे संसार के किसी पदार्थ से बिल्कुल भी राग-द्वेष नहीं होता, जिनका ऐसे कुगुरु के संग से राग-द्वेष रहित नहीं हो सकते, जिनके कुदेव आदि की लक्ष्य सिद्ध पद की प्राप्ति रहता है, जो परम वीतरागी हैं, जिनका सब श्रद्धा ही नहीं छूटी उनको धर्म ध्यान नहीं हो सकता, वे तो गृहीत मिथ्यादृष्टि राग-द्वेष गारव छूट गया है, जो आत्मज्ञान का उपदेश देते हैं। रत्नत्रय अर्थात् हैं, दर्शन मोहांध ऐसे कुगुरुओं को गुरु मानता है। सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र के धारी, जो परमाणु मात्र, परद्रव्य प्रश्न - ऐसे कुगुरुओं को गुरु मानने से क्या होता है? परभाव में अपनत्व कर्तृत्व नहीं मानते, मिथ्यात्व शल्यादि से रहित - इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - शुद्धात्मानुभूति में रत रहते हैं, ऐसे सद्गुरुओं के उपदेश से आत्म ज्ञान तथा दर्सन मोहंध अदर्स, गुरु अगुरूंच न्यान विन्यानं । मुक्ति मार्ग पर चलने का पुरुषार्थ जागता है। गुरुंच गुनं नहि पिच्छं, अगुरुं अन्मोय दुग्गए पत्तं ॥ १८८ ॥ ___ दर्शन मोहांध अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव ऐसे सद्गुरुओं का सत्संग, समागम नहीं करता और जो सरागी, मिथ्यादृष्टि, रागी द्वेषी सग्रन्थ, गुरुंच लष्य अलव्यं, अगुरुं संसार सरनि उक्तं च। साम्प्रदायिक, क्रिया कांडी, कुगुरुओं को गुरू मानता है जो मिथ्यात्व शल्यादि गुन दोस नवि जानइ, दर्सन मोहंध नरय वीयम्मि ।। १८९॥ में लिप्त संसार मार्गी होते हैं, ऐसे अज्ञानी गुरुओं को गुरू मानता है, उनकी गुरुंच षिपनिक रूवं, अगुरुं अभाव सयल उक्तं च। भक्ति आराधना में रत रहता है। मुनिधर्म शुद्धोपयोगरूप है, पुण्य-पाप रूप शुभाशुभ भाव धर्म नहीं है तस्य गुनं अन्मोयं, दर्सन मोहंध निगोय वासम्मि ॥१९० ॥ परंतु शुद्धोपयोग ही धर्म है। जो सम्यकदर्शन ज्ञान चारित्र सहित अंतर में अन्वयार्थ - (दर्सन मोहंध अदर्स) दर्शन मोह से अंधा जीव यह नहीं लीनता वर्तती है वही साधु का स्वरूप है, ऐसे सच्चे वीतरागी निर्ग्रन्थ साधु देखता है कि (गुरु अगुरुं च न्यान विन्यानं) सुगुरु कौन है व कुगुरु कौन है ? सद्गुरु होते हैं। मिथ्याज्ञान क्या है व सम्यज्ञान क्या है ? (गुरुं च गुनं नहि पिच्छं) वह साधु समस्त राग-द्वेष, विषय-कषाय, पाप-परिग्रह, मिथ्यात्व शल्य सद्गुरु के गुणों को नहीं पहिचानता है (अगुरुं अन्मोय दुग्गए पत्तं) अगुरु की * आदि से रहित अपने शुद्धात्म स्वरूप के ज्ञान ध्यान में लीन रहते हैं और अनुमोदना से दुर्गति पाता है। * शुद्धात्म स्वरूप आत्म ज्ञान का ही उपदेश करते हैं। पंचपरमेष्ठी का मूल (गुरुं च लष्य अलष्यं) गुरु वे हैं जो अलख है उसको लखते, अनुभव * स्वरूप तो वीतराग विज्ञान मय है, अंतर शुद्धता हुई व उसका ज्ञान ही परम करते हैं (अगुरूं संसार सरनि उक्तं च) अगुरु संसार मार्ग की ही बात कहते हैं * इष्ट है क्योंकि जीव तत्त्व की अपेक्षा से तो सर्व जीव समान हैं। शक्ति से तो (गुन दोसं नवि जानइ) सुगुरु और कुगुरु के गुण दोषों को नहीं जानता है सभी आत्मायें शुद्ध हैं परंतु रागादि विकार अथवा ज्ञान की हीनता की अपेक्षा ऐसा (दर्सन मोहंध नरय वीयम्मि) दर्शन मोहांध जीव नरक का बीज बोता है* १३१ HHHHHH * * **** ** -----E-HE-HEE
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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