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2-4-******* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
गाथा- १८५-१८७***
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(गुरुं च मग उवएस) गुरु वे ही हैं जो मोक्षमार्ग का उपदेश देते हैं (अमर्ग सयल भाव गलियं च) जिससे मोक्षमार्ग के विपरीत कुमार्ग, संसारी * मार्ग के सारे भाव गल जाते हैं (गुरुं च न्यान सहावं) अपना ज्ञान स्वभाव ही * सच्चा गुरु है तथा गुरु वे ही हैं जो अपने ज्ञान स्वभावी आत्मा में रत रहते हैं,
जो सम्यक्ज्ञान के धारी हैं (दर्सन मोहंध अन्यान गुरुवं च) दर्शन मोहांध अज्ञानी जीव आत्मज्ञान से रहित अज्ञानी को गुरु मानता है।
विशेषार्थ- आत्मज्ञानी निर्ग्रन्थ वीतरागी संतों को सद्गुरु कहते हैं, जो अपने शुद्धात्म स्वरूप के ज्ञान ध्यान में रत रहते हैं तथा भव्य जीवों को गुप्त अध्यात्म तत्त्व का उपदेश देते हैं, आत्मा के शुद्ध स्वभाव का बोध कराते हैं। सम्यक्दर्शन, ज्ञान में प्रधान सम्यक्चारित्र के साधक दर्शन ज्ञान की प्रधानता अर्थात् आत्मा मात्र ज्ञाता दृष्टा ज्ञायक स्वभावी है। आत्मा पर का कर्ता, धर्ता, भोक्ता नहीं है ऐसा भेदज्ञान कराते हैं, गुरु बड़े दयालु होते हैं। स्वयं वीतराग शुद्ध परिणति में रमण करते हुए अपने कर्मों की निर्जरा करते हैं तथा अपने शिष्यों को भी ऐसा उपदेश देते हैं जिससे वे भी अपने विमल स्वभाव की पहिचान कर शुद्धोपयोग द्वारा उसमें रमण कर सकें । गुरु में इंद्रिय निग्रह, वीतरागता, समता भाव व उत्तम क्षमा आदि गुण होते हैं, वे आरंभ-परिग्रह से विरक्त मोक्षमार्ग पर चलते हैं तथा मोक्षमार्ग पर चलने का उपदेश देते हैं, जिनके उपदेश से भव्य जीवों को संसार से विरक्ति हो जाती है, कुमार्ग पर चलना छूट जाता है, संसार के सारे भाव गल जाते हैं, ज्ञान स्वभाव का प्रकाश हो जाता है। अंतरात्मा के जागरण को ही सद्गुरु का मिलन कहते हैं । निश्चय से अपना अंतरात्मा ज्ञान स्वभाव का जागरण ही सच्चा गुरु है।
दर्शन मोहांध जीव ऐसे सद्गुरु का न उपदेश सुनता है, न सत्संग करता है, वह मिथ्यात्व में लिप्त परिग्रह धारी, आरंभ में लीन, आत्मज्ञान से
शून्य, इंद्रिय लम्पटी, प्रतिष्ठा चाहने वाले, संसारासक्त मिथ्या प्रपंच में फंसाने * वाले अगुरु, कुगुरु, अज्ञानियों को गुरु मानता है, इसी से संसार में परिभ्रमण करता है।
जिसे अध्यात्म ज्ञान के द्वारा आत्मा के शांत रस निज स्वभाव का यथार्थ अनुभव न हुआ हो, वह वीतराग दिगम्बर जैन दर्शन के रहस्य को नहीं जानता । जैन धर्म तो शुद्ध अध्यात्म रसमय है, कोई दया दान पूजा भक्ति
आदि जैन धर्म का स्वरूप नहीं है । वक्ता को शास्त्र वांचन कर आजीविकादि लौकिक कार्य साधने की इच्छा नहीं होनी चाहिये क्योंकि कोई भी लौकिक आशा होने पर यथार्थ उपदेश देना नहीं हो सकता।
ज्ञायक पिंड आनंद स्वरूप आत्मा का भानकर अंतर लीन होना सो जैन धर्म है।
गुरु कीजे जानकर, पानी पीजे छानकर, तभी कल्याण हो सकता है।
प्रश्न-सच्चे गुरु का स्वरूप क्या है? उनका आचरण कैसा होता है? दर्शन मोहांध कैसे गुरु को मानता है?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - गुरुंच लोय पयासं, चेलं ससहाव ग्रंथ मुक्कं च। ममल सहावं सुद्ध, दर्सन मोहंध समल गुरुवं च ॥ १८५॥ गुरुं सहाव स उत्तं, रागं दोसं पि गारवं तिक्तम् । न्यानमई उवएस, दर्सन मोहंध राइ मय गुरुवं ॥ १८६ ॥ गुरुंच दर्सन मइओ, गुरुं च न्यान चरन संजुत्तो। मिथ्या सल्य विमुक्कं,दर्सन मोहंध सल्य गुरुवं च ॥ १८७ ।।
अन्वयार्थ-(गुरूंच लोय पयासं) सच्चे गुरु वह हैं जो लोक के स्वरूप का प्रकाश करते हैं अर्थात् वस्तु स्वरूप बताते हैं (चेलं ससहाव ग्रंथ मुक्कं च) जो बाहर से पंच चेल, समस्त वस्त्र परिग्रह के त्यागी हैं तथा अंतरंग में अपने स्व स्वभाव शुद्धात्मा के अनुरागी व सर्व बंधनों से मुक्त होते हैं (ममल सहावं सुद्ध) जो ममल शुद्ध स्वभाव की साधना करते हैं तथा समस्त विषय कषायों से रहित परम शुद्ध होते हैं (दर्सन मोहंध समल गुरुवं च) दर्शन मोहांध जीव मिथ्यात्व, मद, राग, द्वेषादि में लिप्त गुरुओं को गुरु मानता है।
(गुरुं सहाव स उत्तं) गुरु का स्वभाव ऐसा कहा गया है (रागं दोसं पि गारवं तिक्तम्) जिन्होंने राग द्वेष तथा मद का त्याग किया है (न्यानमई उवएस) जिनका उपदेश ज्ञानमयी होता है अर्थात् जो सम्यक्ज्ञान पूर्वक शुद्धात्म स्वरूप का उपदेश करते हैं (दर्सन मोहंध राइ मय गुरुवं) दर्शन मोहांध रागमयी अर्थात् रागी-द्वेषी गुरुओं को मानता है।
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