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गाथा- १८२-१८४***
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* ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी * समान है, ऐसी भावना ही परमात्म पद में ले जाती है। जो सच्चे परमात्मा देव * के स्वरूप को पहिचानता है वह अपने आत्म स्वरूप को भी पहिचानता है * क्योंकि आत्मा ही परमात्मा होता है कोई जड़ अचेतन शरीरादि परमात्मा * नहीं होता।
जो अरिहंत भगवान को उनके आत्म द्रव्य के द्वारा, उनके ज्ञानादि सुख गुणों के द्वारा व उनके स्वाभाविक शुद्ध पर्याय के द्वारा जानता है, वह अपने आत्मा को भी जानता है कि मेरा आत्म स्वरूप भी ऐसा ही है, उसी का मोह दूर होता है।
अरिहंत सिद्ध के आत्मा पर लक्ष्य जायेगा, तब ही सच्चे देव का श्रद्धान होगा, आत्मा की भक्ति से ही आत्मा का विकाश होता है । आत्मा शुद्धात्मा परमात्मा के विचार से ही आत्मानुभव जाग्रत होता है इसलिये सर्वज्ञ वीतराग केवलज्ञान स्वभावी आत्मा को ही देव मानना चाहिये, जो ऐसा मानता है वह सम्यक्दृष्टि है, इसके विपरीत जो किसी भी शरीर सहित रागी-द्वेषी देव को अथवा चेतनता रहित अदेवादि मूर्ति को देव मानता है, वह दर्शन मोह से अंधा मिथ्यादृष्टि जीव है जो संसार में ही परिभ्रमण करता है।
प्रश्न - अनादि अज्ञान मिथ्यात्व से जीव दर्शन मोहांध हो रहा है, और जैसे निमित्त संयोग मिलते हैं वैसा ही होता रहता है, इससे घटने का निमित्त साधन उपाय क्या है?
समाधान-इस अज्ञान मिथ्यात्व से छूटने का एक मात्र उपाय भेदज्ञान पूर्वक सम्यक्दर्शन है, इसमें निमित्त सद्गुरु होते हैं, सद्गुरु का सत्संग करने से ज्ञान की प्राप्ति होती है । साधन स्वयं का विवेक और पुरुषार्थ है, क्योंकि - मानुष तो विवेकवान, नहीं तो पशु के समान।
यह मानुष पर्याय सकुल, सुनियो जिनवाणी।
इहि विधि गये न मिले, सुमणि ज्यों उदधि समानी॥
ज्ञान होने पर ही अज्ञान विलाता है, जैसे प्रकाश होने पर अंधकार * विला जाता है, ज्ञान की प्राप्ति सत्संग, स्वाध्याय, तत्त्व चिंतन से होती है, इसमें सद्गुरु सहकारी हैं। बगैर सद्गुरू के सच्चा ज्ञान नहीं होता है।
प्रश्न- सद्गुरू कैसे होते हैं, उनका स्वरूप क्या है? क्या अभी तक सद्गुरू का शुभयोग नहीं मिला?
समाधान - आत्मज्ञानी वीतरागी संतों को सद्गुरू कहते हैं,जो अपनी
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ज्ञान ध्यान साधना में रत रहते हैं। जगत के प्रपंच से दर जो शद्धात्म स्वरूप की ही चर्चा, आराधना करते हैं, स्वयं मुक्ति मार्ग पर चलते हुए भव्य जीवों को शुद्ध आत्मा और मुक्ति मार्ग का उपदेश देते हैं । सद्गुरुओं का सद्भाव, समागम तो मिलता रहता है, परंतु दर्शन मोहांध ऐसे सद्गुरु की बात न सुनता है, न मानता है, वह अपनी मनमानी करता है।
प्रश्न- सद्गुरु क्या उपदेश देते हैं और दर्शन मोहांध कैसा, क्या मानता है?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंगुरुंच गुपित उवएसं, गुरुंच अप्प सुद्ध सभावं । दंसन न्यान पहानं, दर्सन मोहंध अगुरु गुरुवं च ।। १८२॥ गुरु उवएस स उत्तं, सूज्यम परिनाम कम्म संषिपन । गुरुं च विमल सहावं, दर्सन मोहंध समल गुरुवं च ॥१८३ ॥ गुरुं च मग उवएस, अमर्ग सयल भाव गलियं च। गुरुं च न्यान सहावं, दर्सन मोहंध अन्यान गुरुवं च ॥ १८४ ॥
अन्वयार्थ - (गुरुं च गुपित उवएस) गुरु गुप्त अध्यात्म तत्त्व का उपदेश देते हैं (गुरुंच अप्प सुद्ध सभाव) गुरु आत्मा के शुद्ध स्वभाव का बोध कराते हैं (दंसन न्यान पहानं) जो दर्शन ज्ञान से प्रधान हैं अर्थात् आत्मा दर्शन ज्ञान का धारी ज्ञायक स्वभावी मात्र है, आत्मा कुछ कर्ता, धर्ता, भोक्ता नहीं है, ऐसे आत्मा के शुद्ध स्वभाव को सद्गुरु बताते हैं (दर्सन मोहंध अगुरु गुरुवं च) दर्शन मोहांध अगुरुओं को गुरू मानता है अर्थात् जो संसार शरीर भोगों में फंसाते हैं, आत्मा को कर्ता भोक्ता बताते हैं ऐसे अगुरुओं की बातों में लगा रहता है और उनको गुरु मानता है।
(गुरु उवएस स उत्तं) सद्गुरु ऐसा उपदेश देते हैं (सूष्यम परिनाम कम्म संषिपनं) जिससे सूक्ष्म अतीन्द्रिय आत्मा की शुद्धोपयोग परिणति का ज्ञान हो जावे, जिस परिणति में रमण करने से कर्मों का क्षय होता है (गुरुं च विमल सहावं) गुरु, विमल स्वभावी आत्मा को बताते हैं और स्वयं विमल स्वभावी होते हैं (दर्सन मोहंध समल गुरुवं च) दर्शन मोहांध जीव रागी-द्वेषी संसारी प्रपंच में फंसे गुरुओं को गुरु मानता है।
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