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-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
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देवं अलव्य लक्ष्यं देवं संसार सरनि विगतोयं । मिथ्या राग विमुक्कं, दर्सन मोहंध मिथ्य देवं च ।। १७९ ।। दर्सन मोहंच सुभावं, अजित असत्य देव उत्तं च । आचरनं संसार महओ, दर्सन मोहंध दुग्गए पत्तं ।। १८० ।। मोघं च सुभावं कुदेवं देव सबल सहकारं ।
अदेवं अन्मोर्य, दर्सन मोहंध निगोय वासम्मि ॥ १८९ ॥ अन्वयार्थ (देवं अलष्य लष्यं) देव अर्थात् परमात्मा अपने अलख स्वरूप आत्मा को प्रत्यक्ष देखता है (देवं संसार सरनि विगतोयं ) परमात्मा वह है जो संसार परिभ्रमण से मुक्त हो गया, जिस आत्मा के जन्म-मरण का चक्र छूट गया वही परमात्मा है (मिथ्या राग विमुक्कं) जो सब मिथ्यात्व रागादि से मुक्त हो गया अर्थात् जो अपने परिपूर्ण सच्चिदानंद घन ब्रह्म स्वरूप में लीन हो गया वह परमात्मा सच्चा देव है (दर्सन मोहंध मिथ्य देवं च) दर्शन मोहांध जीव इसके विपरीत मिथ्या देव को मानता है।
(दर्सन मोहंध सुभावं ) यह दर्शन मोहांध अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव का स्वभाव होता है कि वह (अन्रित असत्य देव उत्तं च) झूठे नाशवान अचेतन अदेव या रागी -द्वेषी कुदेवों को देव कहता है (आचरनं संसार मइओ) उसका आचरण संसार मयी होता है अर्थात् संसारी सुख-दुःख आदि की अपेक्षा ही सारा आचरण करता है (दर्सन मोहंध दुग्गए पत्तं) इसी से दर्शन मोहांध अज्ञानी जीव दुर्गति का पात्र बनता है।
(मोहंधं च सुभावं ) दर्शन मोहांध अज्ञानी जीव का यह स्वभाव होता है कि वह (कुदेवं देव सयल सहकारं) सच्चे झूठे, देव-कुदेव सबको एक सा मानता, स्वीकार करता है (अदेवं अन्मोयं) अदेव जड़ प्रतिमा आदि का ही आलंबन रखता है, अनुमोदना करता है (दर्सन मोहंध निगोय वासम्मि) इसी से दर्शन मोहांध जीव निगोद में वास करता है।
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विशेषार्थ - जब तक भेदविज्ञान पूर्वक निज शुद्धात्मानुभूति सम्यक्दर्शन नहीं होता तथा सच्चे देव गुरु धर्म का सत्श्रद्धान नहीं होता तब तक दर्शन मोह से अंधा अज्ञानी जीव संसार में ही परिभ्रमण करता है। सच्चा देव परमात्मा तो अपने अलख निरंजन स्वभावमय रहता है, आत्मा को प्रत्यक्ष
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गाथा १७९-१८१ *******
देखता है। परमात्मा वह है जो संसार के परिभ्रमण जन्म-मरण के चक्र से छूट गया, जो सब मिथ्यात्व रागादि से मुक्त हो गया, जो अपने परिपूर्ण सच्चिदानंद घन स्वभाव ब्रह्म स्वरूप में लीन रहता है, वह परमात्मा सच्चा देव है। दर्शन मोहांध इसके विपरीत मिथ्या देव को देव मानता है। दर्शन मोहांध अज्ञानी जीव का यह स्वभाव होता है कि वह झूठे नाशवान अचेतन, अदेव या रागी -द्वेषी कुदेवों को देव कहता है, दर्शन मोहांध को सच्चे झूठे, देव कुदेव अदेव का कोई भेद नहीं होता, वह सब देव कुदेव अदेव को एक ही मानता है क्योंकि जब तक सच्चे देव, गुरु, धर्म के स्वरूप का बोध नहीं होता तब तक आत्म श्रद्धान सम्यक्दर्शन भी नहीं होता तथा सम्यक्दर्शन ज्ञान होने पर ही सच्चे देव गुरु धर्म की यथार्थ प्रतीति होती है इसलिये दर्शन मोहांध, कैसे ही रूप में किसी भी देव की श्रद्धा पूजा भक्ति करे, उसका आचरण संसारमयी ही होता है। परमार्थ का उसे ज्ञान ही नहीं होता इसलिये कुछ अपेक्षा से कुछ भी माने वह संसार में ही परिभ्रमण करता है और अदेवादि की पूजा भक्ति करके तीव्र मिथ्यात्व से निगोद चला जाता है।
आत्मा का प्रत्यक्ष दर्शन केवलज्ञानी अरिहंत परमात्मा ही करते हैं वही सच्चे देव हैं, जो वीतरागी सर्वज्ञ हितोपदेशी संसार के सर्व प्रकार के आरंभ परिग्रह के भाव से मुक्त हैं, जिनमें कोई संसारी मिथ्या राग नहीं है, जो जन्म-मरण के चक्र से छूट गये हैं, जिनका कभी संसार में आवागमन ही नहीं होता, जो निरंतर आत्मानंद में मगन परम वीतराग हैं, ऐसे परमात्मा ही सच्चे देव होते हैं ।
देवगति में रहने वाले सर्व ही इन्द्र धरणेन्द्र क्षेत्रपालादि देव कर्माधीन हैं, जब मरण का समय आता है वे अपनी रक्षा नहीं कर सकते, वे स्वयं कर्मों के उदयानुसार अनेक गतियों में भ्रमण करते हैं, वे स्वयं भोगों में लीन रागी -द्वेषी होते हैं, ऐसे संसारी आत्माओं को देव मानना घोर मिथ्यात्व है तथा जिनमें चेतनता आत्मा ही नहीं है ऐसे जड़ पाषाण आदि की मूर्ति अदेव को देव मानना मिथ्यात्व है ।
वास्तव में देव के मानने का अभिप्राय यह है कि अपने सामने ऐसा एक आदर्श रहे जिस पर हमको पहुंचना है, स्वयं वैसे होना है इसलिये आदर्श देव अरिहंत व सिद्ध परमात्मा ही हो सकते हैं क्योंकि वे सर्व तरह से शुद्ध परम वीतराग ज्ञाता दृष्टा आनंदमयी परमात्मा हैं। मेरा आत्मा भी परमात्मा के
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