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गाथा- २२१,२२२***
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* ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी * मानना चाहिये यह कुछ भी दिखलाई नहीं पड़ता, वह अपनी मनमानी करता * है (विकलत्तय अनेय कालम्मि) इससे अनेक काल तक विकलत्रय दो इन्द्रिय से चार इन्द्रिय तक में जन्म-मरण करना पड़ता है।
(दर्सन मोहंध अन्धं) दर्शन मोहांध ऐसा अंधा होता है (कोमल परिनाम न्यान आवरनं) कि उसके कोमल स्वभाव पर तथा ज्ञान पर मिथ्यात्व का परदा पड़ा रहता है (कोमल सहाव न दिट्ट) उसको सरल स्वभावी आत्मा की प्रतीति नहीं होती, उस तरफ देखता ही नहीं है (निगोय वासं अनेय कालम्मि) जिससे अनेक काल तक निगोद में वास करना पड़ता है।
विशेषार्थ-दर्शन मोहांध अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव का ऐसा स्वभाव होता है कि उसका सारा परिणमन क्रियारूप, भावरूप, पर्यायरूप जो भी कर्मोदय जन्य परिणमन चलता है वह उसका कर्ता भोक्ता बना रहता है जिससे शुभाशुभ कर्मों का ही निरंतर बंध करता है जिससे अगले भव में या तो पशु हो जाता है या देवयोनि व्यंतर भवनवासी कुदेव होता है।
दर्शन मोहांध की ऐसी परिणति होती है कि वह संसारी प्रपंच विषय, कषाय, पाप आदि को हितकारी मानता है। यदि कोई हित की बात कहता है, धर्म की आत्मा की चर्चा करता है तो वह न उस बात को सुनता है , न मानता है, उसे हेय-उपादेय का कोई ज्ञान नहीं होता, भेदविज्ञान का तो श्रद्धान ही नहीं करता है। मिथ्याज्ञान से ऐसा आचरण करता है जिससे अनेक काल तक विकलत्रय दो इन्द्रिय से चार इन्द्रिय तक जन्म-मरण करता रहता है।
दर्शन मोहांध मिथ्यात्व में ऐसा अंधा होता है कि उसे अपने हिताहित का कोई होश नहीं होता, दुष्ट कठोर परिणाम, अनंतानुबंधी कषाय में ऐसा रत रहता है कि आत्मा-परमात्मा की बात तो दूर, मंद कषाय शुभ भाव का भी कोई विवेक नहीं करता, कठोर परिणामों से ऐसे कर्मों का बंध करता है कि अनेक काल तक निगोद में वास करना पड़ता है।
मिथ्यादृष्टि के ज्ञानावरण का ऐसा उदय होता है जिससे उसे भेदविज्ञान * सम्बंधी ज्ञान नहीं हो पाता है। राग-द्वेष, मोह व विषय-कषाय त्यागने योग्य
हैं, ऐसा ज्ञान नहीं होता है, जिससे उसके परिणामों में से कठोरता नहीं *जाती। वह अपने स्वार्थ सिद्ध करने को हिंसक भाव का धारी होता है तथा
उसके ज्ञान पर भी ऐसा परदा रहता है जिससे उसको आत्मा की व उसके मार्दव गुण सरल स्वभाव की प्रतीति नहीं होती वह पर्याय में रत रहता है,
जिससे कर्म बांधकर नीच निगोद आदि दुर्गतियों में जन्म-मरण करता है।
ऐसी दुर्लभ मनुष्य देह मिली और ऐसा वीतराग मार्ग महाभाग्य से मिला है अत: मिथ्यात्व अज्ञान रूप दर्शन मोह को दूर करने के लिये आत्मा को पहिचानने का प्रयत्न करना चाहिये, पांच इन्द्रियों के रस रूप बोझे को हटाकर आत्मा को पहिचानने के विचार में लगना चाहिये । अंतर में अनंत आनंद आदि स्वभाव भरा है, ऐसे स्वभाव की महिमा आये, पहिचान हो तो अंतर पुरुषार्थ स्फुरित हुए बिना रहे ही नहीं।
अज्ञानी को पहले वस्तु स्वरूप का यथार्थ ज्ञान कर आत्मा का भान करना चाहिये, यह सम्यक्दर्शन प्राप्त करने का सच्चा उपाय है, शुभाशुभ रूप क्रियाकांड करना वह सच्चा उपाय नहीं है।
एक आत्मा ही सार है, व्यवहार रत्नत्रय का विकल्प सार नहीं, एक समय की पर्याय भी सार नहीं है । सार का सार उपदेश शुद्ध का सार तो एक शुद्धात्मा ही है। तीन लोक में सार का सार एक आत्मा ही है। इसके सिवाय अन्य सब कुछ निस्सार है। पैसा, लक्ष्मी, चक्रवर्ती पद, इन्द्र पद यह सभी निस्सार हैं, एक चैतन्य तत्त्व ही जगत में सार है।
प्रश्न - ऐसे तीन लोक में सारभूत निज शुद्धात्म स्वरूप को दर्शन मोहांध स्वीकार क्यों नहीं करता है?
इसके समाधान में सदगुरु आगे गाथा कहते हैं - दर्सन मोहंध सहियं, न्यानं आवर्न देइ दिस्ट च। दिस्टि सहाव न दिस्टं, थावर गइ अनेय कालम्मि ॥ २२१ ॥ न्यान आवरन स उत्तं, दर्सन मोहंध देई सहकार। संसार सरनि बूडं, चौगइ संसार भावना होई॥२२२॥
अन्वयार्थ - (दर्सन मोहंध सहियं) जो मिथ्यादृष्टि दर्शनमोह के उदय सहित होता है (न्यानं आवर्न देइ दिस्टं च) वह अपनी मिथ्यावृष्टि, विपरीत मान्यता से ज्ञान पर आवरण डालता है अर्थात् आत्मा की चर्चा न करता है, न सुनता है, भेदविज्ञान और धर्म की चर्चा में बाधा डालता है (दिस्टि सहाव न दिस्ट) वह अपने आत्म स्वभाव को नहीं देखता और न उसका श्रद्धान करता है (थावर गइ अनेय कालम्मि) जिससे वह दीर्घकाल तक स्थावर काय में जन्मता है।
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