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गाथा-१
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*** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
* ॐनमः सिद्धं *
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答答多层多层卷出卷
श्री. उपदेश शुद्ध सार जी.
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साधक संजीवनी - टीका मंगलाचरण
(दोहा) आतम शुद्धातम ममल, परमातम अविकार । सिद्ध स्वरूपी आत्मा, स्वयं समय का सार ।। जिनवाणी श्रद्धान से, मिट जाते सब क्लेश । सम्यक् ज्ञान प्रकाश से, प्रगटे पद परमेश ।। उपदेश शुद्ध का सार यह, जिनवाणी अनुसार । भव्यों के सम्बोध हित, दरशाया गुरु तार ।। आदिनाथ महावीर तक, तीर्थकर भगवान । सबकी है यह देशना, तुम हो सिद्ध समान ।। ज्ञानानन्द स्वभाव है, सब ही जीव समान । द्रव्य दृष्टि धारण करो, पाओ पद निर्वाण ॥
प्रथम-ज्ञान अधिकार उपदेश शुद्ध सार का मूल आधार और सत्य वस्तु स्वरूप को बताने वाला मंगलाचरण
अप्पानं सुद्धप्पानं, परमप्पा विमल निम्मलं सरूवं । सिद्ध सरूवं पिच्छदि, नमामिहं देवदेवस्य ॥१॥
अन्वयार्थ-(अप्पानं) आत्मा ही, समस्त जीव आत्मा (सुद्धप्पानं) शुद्धात्मा * है (परमप्पा) परमात्मा (विमल) समस्त मल से रहित (निम्मल) स्वच्छ, निर्मल,
पवित्र शुद्ध (सरूवं) स्वरूप है (सिद्ध सरूवं) सिद्ध स्वरूप को (पिच्छदि) * पहिचानकर, अनुभूति, श्रद्धान कर (नमामिहं) मैं नमस्कार करता हूँ (देवदेवस्य) * देवों के देव परमदेव परमात्मा को। ***** * * ***
विशेषार्थ- आत्मा ही शुद्धात्मा है, यही परमात्मा विमल निर्मल स्वरूपी है, ऐसे सिद्ध स्वरूप को अनुभूतियुत श्रद्धानकर देवों के देव, परम देव परमात्मा, निज सिद्ध स्वरूप को मैं नमस्कार करता हूँ।
सिद्धांत का सार, उपदेश का शुद्ध सार, अध्यात्म का पूर्ण रहस्य इस मंगलाचरण में भर दिया है। मैं आत्मा, शुद्धात्मा, परमात्मा, विमल, निर्मल, स्वरूपी पूर्ण शुद्ध मुक्त हूँ, ऐसे अपने सिद्ध स्वरूप को पहिचान कर, अनुभूतिकर, देवों के परमदेव, परमात्म स्वरूप निज शुद्धात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ तथा जगत के समस्त जीवात्मा भी स्वभाव से शुद्धात्मा, परमात्मा, विमल, निर्मल स्वरूपी सिद्ध के समान हैं, ऐसा श्रद्धान ज्ञान होना ही शुद्ध दृष्टि है। जिससे समस्त जीवों के प्रति मोह, राग-द्वेष का अभाव होकर समभाव प्रगट होता है।
इस मंगलाचरण में श्री तारण स्वामी ने शुद्ध निश्चयनय से आत्मा के सत्रस्वरूप को प्रगट किया है कि आत्मा निरंजन, निर्विकार, शुद्ध वीतराग, अनंत चतुष्टय का धारी, अरिहंत, सर्वज्ञ परमात्मा तथा सारे कर्म मलादि से रहित है। अशरीरी, अविकारी सिद्ध स्वरूपी परमात्मा है, ऐसे अपने सिद्ध स्वरूप की अनुभूति करता हुआ मैं नमस्कार करता हूँ।
जैन सिद्धांत में दो नय बताये हैं- व्यवहार नय और निश्चय नय । व्यवहार नय भेदरूप या अशुद्ध रूप वस्तु को बताता है, इससे शुद्धात्मा का बोध नहीं हो सकता। निश्चय नय आत्मा के शुद्ध स्वरूप को बताता है, निश्चयनय से वस्तु के यथार्थ स्वरूप का बोध होता है। जब निश्चय नय के द्वारा मनन करते हुए आत्मा आत्मस्थ हो जाता है और स्वानुभव पैदा होता है तब ही सच्चे परमात्म स्वरूप का अनुभव होता है। स्वानुभव ही मोक्षमार्ग है, इसकी साधना से केवलज्ञान का प्रकाश होता है, सिद्ध पद प्रगट होता है।
तीनकाल और तीनलोक में शुद्ध निश्चय से ज्ञान स्वभावी मैं आत्मा शुद्धात्मा परमात्मा हूँ ऐसी दृष्टि ही आत्म भावना है, मैं ऐसा हूँ तथा सब जीव भी शुद्ध स्वरूपी परमात्मा हैं, द्रव्य दृष्टि से सब जीव सिद्ध समान हैं। मैं स्वयं सिद्ध हूँ, ऐसे आत्मा का अनुभव होना, इसका नाम सम्यकदर्शन ज्ञान है और अपने सत् स्वरूप * में स्थिर होना सम्यक्चारित्र है। निश्चय मोक्षमार्ग तो निर्विकल्प समाधि है। उससे उत्पन्न हुए अतीन्द्रिय आनंद का अनुभव जिसका लक्षण है ऐसा स्वसंवेदन ज्ञान ही "ज्ञान" है। शास्त्राध्ययन मात्र ज्ञान नहीं ; परन्तु निर्विकल्प स्वसंवेदन ही ज्ञान है । सुखानुभूति मात्र लक्षणरूप स्वसंवेदन ज्ञान से ही आत्मा जानने
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