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HHH-** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
गाथा-१७३-१७६*-------------
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देवं ऊर्थ सहावं, देवं तिलोयमंत सुपएसं । देवं अनन्त नंतं, दर्सन मोहंध अनितं देवं ॥ १७५॥ देवं अनन्त दिस्टी, इस्टी संजोय सहाव परमिस्टी। आनन्दं परमानन्द, दर्सन मोहंध असत्य देवं च ॥ १७६ ॥
अन्वयार्थ - (देवं देवाधिदेवं) सच्चे देव परमात्मा, देवों के देव, इन्द्र के भी देव अर्थात् इष्ट परमात्मा होते हैं (देवं वर न्यान दंसनं समग्ग) देव अर्थात् परमात्मा श्रेष्ठ ज्ञान दर्शन से समग्र परिपूर्ण होते हैं (चरनं अनन्त वीज) जो अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख, अनंत वीर्य के धारी अपने स्वरूप में लीन रहते हैं (दर्सन मोहंध अदेव देवं च) दर्शन मोहांध अदेव को देव मानता है अर्थात् दर्शन मोहांध, सच्चे वीतरागी, सर्वज्ञ, हितोपदेशी, अरिहंत परमात्मा को सच्चा देव न मानकर जड़ अचेतन शरीरादि मूर्तिक प्रतिमा को देव मानता है।
(देवं अरूव रूवं) देव का स्वरूप अरूपी है, चैतन्य स्वरूप आत्मा परमात्मा अरस, अरूपी, अस्पर्शी होता है (रूवातीतं च विगत रूवेन) जो रूपातीत है, वर्णादि शरीर रहित है अर्थात् सिद्ध परमात्मा अशरीरी अविकारी अपने में पूर्ण परमानंदमय परमात्मा होते हैं (न्यानमई ससहावं) जिनका स्व स्वभाव ज्ञानमयी है अर्थात् ज्ञान मात्र चैतन्य ज्योति स्वरूप ही सिद्ध परमात्मा होते हैं (दर्सन मोहंध रूव देवं च) दर्शन मोहांध जीव, रूपी दिखने वाले शरीर अचेतन जड़ प्रतिमा मूर्ति को देव मानता है।
(देवं ऊर्घ सहावं) श्रेष्ठ स्वभाव धारी ऊर्धगामी आत्मा को देव कहते हैं (देवं तिलोयमंत सुपएस) देव तीन लोक में शुद्ध प्रदेशी ही होते हैं (देवं अनन्त नंतं) देव अनंत चतुष्टय व अनंतानंत गुणों के धारी हैं (दर्सन मोहंध अनितं देवं) दर्शन मोहांध नाशवान क्षणभंगुर असत् शरीरादि को देव मानता है।
(देवं अनन्त दिस्टी) देव वह हैं जो अनंत दर्शन के धारी हैं (इस्टी * संजोय सहाव परमिस्टी) जिनका स्वभाव सर्व प्राणी मात्र को इष्ट हितकारी है * तथा जो अपने स्वभाव परम इष्ट पद में तिष्टते हैं (आनन्दं परमानन्दं) जो * हमेशा आनंद परमानंद में मग्न रहते हैं (दर्सन मोहंध असत्य देवं च) दर्शन * मोहांध अज्ञानी मिथ्यावृष्टि इसके विपरीत जो असत्, झूठे हैं उनको देव
मानता है। ***** * * ***
विशेषार्थ-सच्चे देव परमात्मा का स्वरूप तो यह है जो तीन लोक में पूज्य देवों के देव इन्द्रों द्वारा भी पूज्यनीय हैं। सच्चे देव का स्वरूप तो 8 वीतरागी सर्वज्ञ हितोपदेशी आप्त अरिहंत परमात्मा हैं,जो रत्नत्रयमयी अनंत
चतुष्टय के धारी केवलज्ञानी परमात्मा हैं, जो शरीर सहित होते हुए भी अपने ज्ञानानंद स्वभाव में लीन रहते हैं, वही सच्चे देव होते हैं जो प्रत्येक जीव आत्मा का अपना सत्स्वभाव है। दर्शन मोहांध जीव को ऐसे सच्चे देव की श्रद्धा नहीं होती, वह अदेव, कुदेव आदि को देव मानता है।
शुद्ध आत्मा को देव कहते हैं, जो सिद्ध परमात्मा, सर्व कर्म रहित, अशरीरी, अविकारी, निरंजन ज्ञानमात्र जिनका स्व स्वभाव है, अपने स्व स्वभाव में तिष्ठते हैं, ऐसे सिद्ध परमात्मा सच्चे देव होते हैं। दर्शन मोहांध जीव शरीरादि रूपी मूर्तिक प्रतिमा को देव मानता है। अनंत गुणों का धारी वीतराग शुद्ध आत्मा ही सच्चा देव है, जो लोकालोक का ज्ञाता शुद्ध प्रदेशी अपने में परिपूर्ण परमानंद मयी परमात्मा है, इससे विपरीत को जो देव मानता है वह मिथ्यादृष्टि है।
देव वही है जो परमात्म पद में तिष्ठता है, जो अनंत चतुष्टय का धारी हमेशा आनंद परमानंद में मग्न रहता है, ऐसे परमात्म स्वरूप के स्मरण मात्र से जीवों का कल्याण होता है वही सच्चे देव होते हैं । दर्शन मोहांध जो नाशवान असत् देवादि मूर्तिक है उनको देव मानता है।
प्रश्न- अदेव किसे कहते हैं और कुदेव किसे कहते हैं?
समाधान - जड़ अचेतन पाषाण धातु आदि की मूर्ति या चित्र लेप आदि जो संसारी जीवों द्वारा बनाये जाते हैं, चेतनता रहित अचेतन प्रतिमा आदि को देव मानना, उसकी पूजा भक्ति करना. यह सब अदेव कहलाते हैं। इसमें लोक मूढता से और भी संसारी देहली, ओखली, दरवाजा, वृक्ष आदि की पूजा मान्यता, अदेव कहलाती है तथा जो सच्चे वीतरागी सर्वज्ञ हितोपदेशी आप्त परमात्मा नहीं हैं, चार प्रकार की देव योनि व्यंतर, भवनवासी,ज्योतिषी और वैमानिक देवों में पैदा हुए हैं उनको सच्चे देव मानकर पूजा भक्ति करना यह कुदेव मान्यता कहलाती है।
प्रश्न - यह अदेव, कुदेव की मान्यता पूजा भक्ति क्यों की जाती है?
समाधान - संसारी अज्ञानी प्राणी दर्शन मोह से अंधा होकर अपने १२६
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