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१७२५६४-२१
*-*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
होगा, शरीर की क्रिया से धर्म होगा, ऐसा मानने वाले जीव दर्शन मोहांध हैं। स्व-पर का श्रद्धान होने पर, अपने को पर से भिन्न जाने तो स्वयं के आश्रय से संवर निर्जरा रूप सम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्र का उपाय करे और पर द्रव्यों से अपने को भिन्न रूप श्रद्धान होने पर, पर के लक्ष्य से होने वाले पाप-पुण्य व आश्रव बंध को छोड़ने का श्रद्धान होता है। स्वयं को पर से भिन्न जानने पर निज हितार्थ प्रवर्तन करे तथा पर को अपने से भिन्न जानने पर, पर के प्रति उदासीन हो व रागादिक छोड़ने का श्रद्धान हो इस प्रकार सामान्य रूप से जीव-अजीव दोनों को ही भिन्न-भिन्न जाने तब दर्शन मोह का अभाव होकर मोक्ष होता है।
प्रश्न- दर्शन किसे कहते हैं ?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं -
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दर्स दंसन उसे अदर्सन सहकार रूप सहियानं । उत्तं जिन उत्त परं, मोहंयं दिस्टि रूव कलिदानं ।। १७२ ।। अन्वयार्थ - (दर्सइ दंसन उत्तं) देखने अनुभूति करने, श्रद्धान, प्रतीति करने को दर्शन कहते हैं, निज शुद्धात्मानुभूति अपने शुद्धात्म स्वरूप को देखना ही सम्यक् दर्शन है (अदर्सन सहकार रूव सहियानं) रूपी पदार्थ, शरीरादि अचेतन को देखना, उसका श्रद्धान करना, यह अदर्शन मिथ्यादर्शन कहलाता है अथवा रूप सहित अपने को स्वीकार करना अदर्शन है अर्थात् शरीर सहित अपने को रूपी मानना अदर्शन मिथ्यादर्शन है (उत्तं जिन उत्त परं) जैसा श्री जिनेन्द्र ने कहा है उसके विरुद्ध पर को अपना मानना, अपने जिन स्वरूप आत्मा को भिन्न न जानकर शरीर रूप ही अपने को मानना (मोहंधं दिस्टि रूव कलिदानं) यह मोहांध दृष्टि शरीर आदि रूपी पदार्थ को ही अपना मानती है ।
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विशेषार्थ दर्शन के दो भेद हैं, एक सम्यक्दर्शन होता है, एक मिथ्यादर्शन | अपने शुद्धात्म स्वरूप को देखना, निज शुद्धात्मानुभूति, शरीरादि से भिन्न मैं एक अखंड अविनाशी चैतन्य तत्त्व भगवान आत्मा हूँ, ऐसी प्रतीति श्रद्धान होना सम्यक्दर्शन कहलाता है। शरीरादि रूपी पदार्थ को देखना या यह शरीरादि ही मैं हूँ ऐसा मानना, ऐसा श्रद्धान प्रतीति होना, अदर्शन, मिथ्यादर्शन कहलाता है। जैसा जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है उसके विरुद्ध पर को अपना मानना ही मोहांध दृष्टि है और यह शरीरादि रूपी पदार्थों
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गाथा १७२-१७४ *-*-*-*-*-*
में ही लगी रहती है जिससे संसार परिभ्रमण होता है, सम्यक्दर्शन से मुक्ति मार्ग प्रारंभ होता है। दर्शन देखने, अनुभूति करने, प्रतीति करने, श्रद्धान करने को कहते हैं ।
अपने शुद्धात्म स्वरूप की अनुभूति सम्यक् दर्शन है, शरीरादि रूपी पदार्थ को देखना उनका आत्मरूप श्रद्धान करना यह अदर्शन मिथ्यादर्शन है।
अनादि अनंत ऐसा जो एक निज शुद्ध चैतन्य स्वरूप है, उसके स्वसन्मुख होकर आराधन करना वही परमात्मा होने का सच्चा उपाय है।
जड़ शरीरादि रूपी पदार्थों को अपना स्वरूप मानना यही मैं हूँ या यह मेरे हैं ऐसी मान्यता ही मिथ्यादर्शन है। दर्शन मोहांध जीव रूपी पदार्थ, शरीरादि को ही आत्मा परमात्मा कहता है, मानता है और इससे संसार में परिभ्रमण करता है ।
दर्शन मोह को मंद किये बिना वस्तु स्वभाव जानने में नहीं आता और दर्शन मोह का अभाव किये बिना, आत्मा अनुभव में नहीं आता । सर्व प्रकार भेदज्ञान की प्रवीणता द्वारा "यह अनुभूति है सो ही मैं हूँ" ज्ञान लक्षण से लक्षित चैतन्य स्वभाव का अनुभव होने पर, यह अनुभूति ही मैं हूँ यही सम्यक्दर्शन है ।
सर्वज्ञ परमात्मा द्वारा कथित पदार्थ के स्वरूप के अनुसार शास्त्र का सम्यरूप से अवगाहन करना, सांगोपांग समझना ही साधकता है।
दर्शन मोहांध जीव शरीरादि रूपी पदार्थ में ही आत्मा परमात्मा की कल्पना, मान्यता करता है। जड़ अचेतन शरीरादि मूर्ति को ही देव कहता है। क्या शरीरादि मूर्तिक पदार्थ देव नहीं होते ? सच्चे देव का क्या स्वरूप है ?
प्रश्न
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं -
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देवं देवाधिदेवं देवं वर न्यान दंसनं समग्गं ।
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चरनं अनन्त वीज, दर्सन मोहंध अदेव देवं च ।। १७३ ।।
देवं अरूव रूवं रूवातीतं च विगत रूवेन ।
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म्यानमई ससहार्थ, दर्सन मोहंच रूप देवं च ।। १७४ ।।
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