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________________ -*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी मिथ्या वासना है। ऐसी वासना रखकर बाह्य में पंच महाव्रत का पालन तथा दया दानादि की चाहे जितनी क्रिया व मंद कषाय करे तो भी धर्म नहीं होता। भेदविज्ञान पूर्वक निज शुद्धात्मानुभूति न होने से मनरंजन गारव से निगोदादि में वास करना पड़ता है। प्रश्न- मनरंजन गारव का मूल स्रोत क्या है ? समाधान- मनरंजन गारव का मूल स्रोत दर्शन मोहांध है। मोहनीय कर्म के दो भेद होते हैं - १. दर्शन मोहनीय- इसके तीन भेद हैं- मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व, सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व । जीव के अज्ञान में दर्शन मोहनीय की प्रबल सत्ता है, जब तक दर्शन मोहनीय का उपशम, क्षय, क्षयोपशम नहीं होता तब तक जीव को अपने स्वरूप का ज्ञान (बोध) नहीं जागता । २. चारित्र मोहनीय के पच्चीस भेद हैं-चार कषाय क्रोध, मान, माया, लोभ । अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, संज्वलन ४ x ४ = १६ + ९ नोकषाय हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, तीन वेद (स्त्री, पुरुष, नपुंसक) १६ + ९२५ । इसमें मिथ्यात्व के साथ चार अनंतानुबंधी कषाय का गठबंधन रहता है। तीन मिथ्यात्व, चार अनंतानुबंधी कषाय इन सात प्रकृतियों के उपशम, क्षय, क्षयोपशम होने पर ही सम्यक्दर्शन होता है। जब तक दर्शन मोहनीय का सद्भाव रहता है तब तक जीव दर्शन मोहांध से ग्रसित रहता है, अपनी पूर्ण सत्ता शक्ति का प्रगटपना नहीं होता। दर्शन मोहांध जीव को अपने स्वरूप सत्ता शक्ति का बोध न होने से वह संसार में ही रुलता है, पर पर्यायादि को अपना मानता है और इस चक्कर में धर्म से विमुख अधर्म का सेवन कर दुर्गति का पात्र बनता रहता है । दर्शन मोहांध प्रकरण प्रश्न- दर्शन मोहांध किसे कहते हैं ? - दर्शन मोहांध का स्वरूप बताने के लिये सद्गुरु गाथा कहते हैंदंसन मोहंध स उस दसंह अन्नं च मोहए अन्ध । दंसन मोहंच कहिये, अन्यानं नरम दुष्य वीयम्मि ।। १७१ ।। 9 अन्वयार्थ - (दंसन मोहंध स उत्तं) दर्शन मोहांध उसे कहते हैं जो (दर्सइ अन्नं च मोहए अन्धं) अन्य को देखता है और मोह में अंधा रहता है अर्थात् दर्शन मोह के उदय से जीव अपने आत्म स्वरूप को छोड़कर अन्य 味茶 १२४ गाथा १७१ ***** शरीरादि में आपापने का श्रद्धान रखता है तथा मोह से अंधा होकर संसार के विषयों में मूर्च्छावान रहता है (दंसन मोहंध कहियं) ऐसी परिणति को दर्शन मोह का अंधपना कहते हैं, जिससे जीव अपने स्वरूप को भूलकर पर को अपना मानता है और पर के पीछे अंधा पागल रहता है (अन्यानं नरय दुष्य वयम्मि) इसी से मिथ्याज्ञान रहता है जो नरक के दुःखों का बीज है। विशेषार्थ मोहनीय कर्म के दो भेद हैं- एक दर्शन मोह, दूसरा चारित्र मोह | दर्शन मोह सम्यक्दर्शन को प्रगट नहीं होने देता और चारित्र मोह, चारित्र नहीं होने देता तथा कषायों को उत्पन्न करता है। दर्शन मोह जीव का सबसे बड़ा बैरी है, यही अंधा करने वाला है। जीव के अज्ञान से अथवा अपने स्वरूप के विस्मरण से जीव यह शरीर ही मैं हूँ, यह शरीरादि मेरे हैं और मैं इन सबका कर्ता हूँ ऐसा मानता है, यह मान्यता ही दर्शन मोह है और इस मान्यता से जीव दर्शन मोहांध रहता है। धन, परिवार परिग्रह की वृद्धि ही उसके मन को रंजायमान करती है। जैसे कोई मदिरा पीकर उन्मत्त हो जावे व अपने घर को ही भूल जावे, अपनी सुध-बुध खो बैठे, चाहे जिसको अपना माने अथवा चाहे जैसा उल्टा सीधा बोले, इसी प्रकार दर्शन मोह के नशे में यह जीव बावला होकर अपने स्वरूप को भूला रहता है। जिस संसार (धन, शरीर, परिवार) को त्यागने योग्य समझना चाहिये उसको ग्रहण करने योग्य समझता है, धर्म की चर्चा को बिल्कुल भी सुनता नहीं है। मिथ्याज्ञान कुज्ञान के नशे में नरक के दुःखों का बीज बोता है । - जीव, विकार (कर्मोदय संयोग) को तथा निज स्वरूप को एक मान रहा है अतः यथार्थ विचार नहीं कर पाता है यही दर्शन मोहांध है । यदि मिथ्या धारणा में अवकाश बनाकर जाने कि विकार कृत्रिम है तथा स्वभाव निरुपाधि स्वरूप चैतन्य ज्योति है तो भेदज्ञान का अवसर आये परंतु अज्ञानी - - ने तो निज पर दोनों में एकता मानी है। दया दानादि से धर्म होने की मान्यता अर्थात् मिथ्यादर्शन के बल से वह उन दोनों में भेद नहीं करता। व्यवहार करे, कषाय को मंद करे तो धर्म हो ऐसी विपरीत श्रद्धा, स्वभाव व विभाव को पृथक् जानने रूप विचार ही नहीं करने देती। जो आत्म स्वभाव का अनादर कर पर वस्तु से सुख पाना मानता है वह जीव दर्शन मोहांध है। अंतर में महान चैतन्य निधि विराजमान है, उसका तो आदर नहीं करता व जड़ में सुख मानता है, पर से व शुभ भाव से हमें लाभ 器
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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