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________________ ******** -*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी सहित निगोद में वास करता है। उन्नति पथ में शीघ्र अग्रसर होने की इच्छा करने वाले व्यक्ति को अपने स्थूल, सूक्ष्म, कारण और महाकारण इस देह चतुष्टय तथा मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार इस अंत: करण चतुष्टय को शुद्ध करना परमावश्यक है। इनकी शुद्धि होने पर ही सत्य वस्तु स्वरूप का यथार्थ ज्ञान हो सकता है और सत्य ज्ञान होने पर ही मुक्ति की प्राप्ति होती है। जो क्रिया तो बाहरी ऐसी पाले, जिससे प्रगट हो कि यह मोक्षमार्ग पर चल रहा है परंतु अंतरंग में मोक्षमार्ग का श्रद्धान, ज्ञान न हो, वैराग्य भाव न हो किंतु ख्याति लाभ पूजादि की चाह हो, उसका सब कार्य मायाचार रूप व मिथ्या भाव रूप ही होता है, वह कषाय पुष्टि के भ्रम में फंसा रहता है, नाना प्रकार के प्रपंच करता है, जिससे वह नीच गोत्र का बंध करता है और सैनी पंचेन्द्रिय से एकेन्द्रिय साधारण वनस्पति निगोदिया हो जाता है। कषाय भाव ही संसार मार्ग है, वीतराग भाव मोक्षमार्ग है। जो संसार के जन्म-मरण के चक्र, दुःखों से छूटना चाहे उसे उचित है कि भेदविज्ञान पूर्वक निज शुद्धात्मानुभूति युत सम्यक्दर्शन करे और कषाय राग भाव से बचने के लिये आत्मज्ञान पूर्वक जनरंजन राग, कलरंजन दोष और मनरंजन गारव को छोड़े । उत्तमक्षमा, मार्दव, आर्जव धर्म का पालन करे। सरल सहज विनम्र शांत रहे, भावों की शुद्धि पर ध्यान रखते हुए आत्मानुभव सहित व्रत संयम तप का पालन करे, इससे मुक्ति की प्राप्ति होती है। मनरंजन गारव से छूटने के लिये भेदज्ञान के अभ्यास द्वारा उपरामता (उदासीनता, वैराग्य भाव) को प्राप्त होकर धैर्य युक्त बुद्धि से मन को परमात्मा में स्थिर करके और किसी भी विचार को मन में न आने दे। इस प्रकार की दृढ़ता, संकल्प शक्ति पूर्वक प्रतिज्ञा कर लेना चाहिये कि किसी प्रकार का भी वृथा चिन्तन या मिथ्या संकल्पों को मन में नहीं आने दिया जायेगा। इतनी सतर्कता पूर्वक अपने में स्वस्थ होश में सावधान रहना आवश्यक है; क्योंकि बड़ी चेष्टा और दृढ़ता रखने पर भी मन साधक की चेष्टाओं को कई बार व्यर्थ कर देता है। साधक तो समझता है कि मैं ध्यान सामायिक कर रहा हूँ परंतु मन संकल्प-विकल्पों की पूजा में लग जाता है। जब साधक मन की ओर देखता है तो उसे आश्चर्य होता है कि यह क्या हुआ ? इतने नये-नये संकल्प १२३ गाथा १७० ******* जिनकी कभी भावना भी नहीं की कई थी, कहाँ से आ गये ? बात यह होती है। कि साधक जब मन को निर्विषय करना चाहता है तब संसार के नित्य अभ्यस्त विषयों से मन को फुरसत मिल जाती है, उधर परमात्मा में लगने का मन को इस समय तक पूरा अभ्यास नहीं होता इसलिये फुरसत पाते ही वह उन पुराने दृश्यों को जो संस्कार रूप से उस पर अंकित हो रहे हैं, सिनेमा की फिल्म की भांति क्षण-क्षण में एक के बाद एक उलटने लगते हैं। इसी से उस समय ऐसे संकल्प मन में उठते हुए मालूम होते हैं जो संसार का काम करते समय कभी याद भी नहीं आते हैं। स्वप्न भी अंतरमन में पड़ी पूर्व संस्कारित फिल्म है । अज्ञान दशा में चलने वाले संकल्प-विकल्पों में जुड़े रहना, उनमें रस आना, राग होना ही संस्कार रूपी फिल्म है, जो मोह, राग-द्वेष रूप भाव कर्म कहलाते हैं। इनसे छुटकारा हो जाना ही मुक्ति है। " "मन विलयं न्यान सहावं" ज्ञान स्वभाव में ही मन का विलय होता है। मैं तथा मेरा यह अभिमान ही मानस रोग मनरंजन गारव है, इससे मन में काम, क्रोध, लोभ आदि मल आते हैं। मोह का साम्राज्य फैल जाता है। इसमें अज्ञानी जीव मोह से अंधा हो जाता है फिर उसे अपने हित-अहित का कोई विवेक नहीं रहता। मोहांध जीव करने, न करने योग्य सभी कार्यों को करता है। उसे पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म का कोई होश नहीं रहता है। जीव कर्म के उदय से दुःखी नहीं है, अपने राग-द्वेष, मोह के कारण दु:खी होता है । उस दुःख का नाश करने का एक मात्र उपाय वीतराग विज्ञान है । धनादि मिलना दुर्लभ नहीं है परंतु मनुष्य भव मिलना व ऐसा सत् श्रवण का योग मिलना दुर्लभ है और उस श्रवण की अपेक्षा उसकी प्रतीति करना तो महा दुर्लभ है, अन्य कुछ भी दुर्लभ नहीं है। पूर्व के पुण्य उदय अनुसार धन मिलता है। यह कोई वर्तमान के पुरुषार्थ का फल नहीं है और ऐसे संयोग तो अनंत बार मिले हैं वह कोई दुर्लभ नहीं हैं। अनंतकाल में धर्म को नहीं जाना, अपने आत्म स्वरूप का श्रद्धान ज्ञान नहीं किया अत: वही दुर्लभ है। बाह्य क्रिया सुधरने से मेरे परिणाम सुधरेंगे तथा मंदकषाय के परिणाम से धर्म होता है, इस प्रकार के अभिप्राय की गंध भी अंतर में रह जाने का नाम *
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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