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गाथा- १६९,१७०*
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* ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी * है। वास्तव में तो मन से हम (आत्मा) सर्वथा भिन्न ही है, किस समय मन में * क्या संकल्प, क्या विचार होता है इसका पूरा पता हमें रहता है। आंख को * आंख नहीं देख सकती, इस न्याय से मन की बातों को जो जानता या देखता * है, वह मन से सर्वथा भिन्न है। भिन्न होते हुए भी हम स्वयं को मन के साथ * मिला देते हैं, इसी से जोर पाकर मन की उद्दण्डता बढ़ जाती है। यदि साधक
अपने को निरंतर अलग रखकर मन की क्रियाओं का दृष्टा बनकर देखने का अभ्यास करे तो मन बहुत ही शीघ्र संकल्प रहित हो सकता है।
इस प्रकार से मन को रोककर परमात्मा में लगाने के अनेक साधन और युक्तियाँ हैं, इनमें से या अन्य किसी भी युक्ति से किसी प्रकार से भी मन को विषयों से हटाकर परमात्मा में लगाने की चेष्टा करनी चाहिये, मन को स्थिर किये बिना अन्य कोई भी अवलंबन नहीं है। जैसे-चंचल जल में रूप विकृत दिखाई पड़ता है, उसी प्रकार चंचल चित्त में आत्मा का यथार्थ स्वरूप प्रतिबिम्बित नहीं होता; परंतु जैसे स्थिर जल में प्रतिबिम्ब जैसा होता है वैसा ही दीखता है, इसी प्रकार केवल स्थिर मन से ही आत्मा का यथार्थ स्वरूप स्पष्ट प्रत्यक्ष होता है अतएव ज्ञान के अभ्यास और वैराग्य से मन को जीता जा सकता है।
जब तक चिदानंद चैतन्य का अतीन्द्रिय आनंद नहीं आता उसमें रत नहीं होते तब तक मनरंजन गारव के साथ दु:ख ही भोगना पड़ता है । इसी बात को आगे गाथा में कहते हैं -
गलिय सुभावन दिह, चेयन आनन्द चित्त नहु पिच्छं। सूषम सुभाव रहियं, गारव सहकार दुष्य वीयम्मि॥१६९॥
अन्वयार्थ - (गलिय सुभाव न दिट्ठ) जिसने यह नहीं देखा है, न विचारा है कि यह शरीर मन आदि का गलने का, नाश होने का स्वभाव है (चेयन आनन्द चित्त नहु पिच्छं) न जिसने यह श्रद्धान किया है कि मैं चिदानंद चैतन्य स्वभाव का धारी शुद्ध आत्मद्रव्य हूँ (सूषम सुभाव रहियं) जिसको अपने अतीन्द्रिय सूक्ष्म स्वभाव का पता नहीं है (गारव सहकार दुष्य वीयम्मि) वह मनरंजन गारव के सहयोग से दु:खों का ही बीज बोता है।
विशेषार्थ- मिथ्यादर्शन सहित सर्वज्ञान व सर्व क्रिया कुज्ञान तथा कुचारित्र है । सम्यक्दर्शन सहित ज्ञान सुज्ञान व चारित्र सुचारित्र होता है।
जिसने शरीर को पुद्गल रचित एक दिन छूटने वाला नहीं समझा है, मन और कर्म सब गलने वाले नाशवान हैं, इनसे भिन्न मैं एक अखंड अविनाशी चैतन्य तत्त्व भगवान आत्मा ज्ञानानंद स्वभावी हूँ, ऐसा अनुभव नहीं किया है। इन्द्रियों से अतीत में अतीन्द्रिय सूक्ष्म स्वभाव धारी स्वानुभव गम्य हूँ, ऐसा भाव जिसके भीतर नहीं झलका है, वह कर्म के उदय में व कषायों में रत रहता है । कषायों की पुष्टि के लिये ही सब कुछ करता है; अतएव मनरंजन गारव भाव के होने से वह संसार में दुःखों का ही पात्र होता है।
परमात्मा की तरफ चलना अर्थात् परमात्म स्वरूप के सन्मुख होना, मन का मुड़ना ही मुक्ति मार्ग है। मनरंजन गारव में लगे रहना ही संसार परिभ्रमण का कारण है, इसी से सांसारिक भोग और संग्रह की इच्छा होती है, जिससे दुर्गुण दुराचार आते हैं। संसारी मान प्रतिष्ठा, धन वैभव का महत्व पशुओं तथा नारकी जीवों से भी नीचा है क्योंकि पशु और नारकी जीव तो पहले किये हुए पाप कर्मों का फल भोगकर मनुष्यता की तरफ आ रहे हैं परंतु गारव में फंसा मनुष्य पापों में लगकर पशुता और नरक की तरफ जा रहा है।
इसी बात को आगे की गाथा में कहते हैं - परपंच वित्तिपिच्छंतो, विभ्रम सुभाव सयल उपपत्ती। विन्यान न्यान नहु पिच्छं, गारव सहकार निगोय वीयम्मि॥१७॥
अन्वयार्थ - (परपंच वित्ति पिच्छंतो) जो प्रपंच वत्ति में लगा है अर्थात पर की उठा पटक, मायाचारी में रत है (विभ्रम सुभाव सयल उपपत्ती) जिसके भीतर पूर्णपने भ्रामक स्वभाव भरा हुआ है (विन्यान न्यान नहु पिच्छं) जिसने भेदज्ञान पूर्वक आत्मज्ञान को नहीं जाना है (गारव सहकार निगोय वीयम्मि) वह मनरंजन गारव सहित निगोद में वास करने का बीज बोता है।
विशेषार्थ- जिसके मन में धन, सुख भोग तथा शत्रु नाश आदि की अनेकों विषय वासनायें भरी हैं, जो प्रपंच और मायाचारी में रत है, उसके चित्त के अंदर वृत्ति प्रवाह के दो हेतु हैं- १. वासना, २. प्राण प्रवाह । जिसमें वासना का बीज और संस्कार ग्रथित रहते हैं। प्राण के स्पंदन से मन स्पंदित होने पर वृत्ति प्रवाह रूप उत्ताल तरंगें उठना प्रारंभ करती हैं और इसी विभ्रम, भ्रम-भ्रांति में सारे अवगुणों की उत्पत्ति होती है । जिसने भेदज्ञान पूर्वक आत्मज्ञान को नहीं जाना है, वह इस मन के प्रपंच विभ्रम में फंसा गारव
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