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*********** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
गाथा - १६७,१६८K ER
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समाधान - जब तक आत्म तत्त्व के ज्ञान से अज्ञान का नाश नहीं * होता है, तब तक सांसारिक कामनाओं के बीज का समूल नाश नहीं हो पाता, *कामनाओं का मूल ही मन है। मन को जीतने के लिये भेदज्ञान पूर्वक * सम्यक्दर्शन, तत्त्व निर्णय द्वारा सम्यक्ज्ञान होना आवश्यक है, इसके बाद अभ्यास और वैराग्य से ही मन का निरोध होता है।
मन को वश में करने के साधन -
१. भोगों से वैराग्य- इस लोक और परलोक के समस्त भोगों में वैराग्य, अहंकार का त्याग, इस शरीर में जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा और रोग आदि दु:ख और दोषों को देखना चाहिये, इस प्रकार वैराग्य की भावना से मन वश में होता है।
"जैसा खाये अन्न वैसा होवे मन" भोजन से मन में चार प्रकार की स्फुरणा पैदा होती हैं, क्रोध, काम (मान), माया, लोभ (इच्छा चाह) इनको नियंत्रित करने के लिये खान-पान का नियम संयम आवश्यक है, इसके लिये निम्न उपाय हैं
क्रोध की स्फुरणाओं को रोकने के लिये मिर्च,खटाई, चटपटी चीजों को नहीं खाना चाहिये, इनका पूर्ण त्याग होने पर क्रोध की स्फुरणा (भाव) मिट जाते हैं।
काम (मान) की स्फुरणाओं को रोकने के लिये नमक, नमकीन नहीं खाना चाहिये, इनका पूर्ण त्याग होने पर काम भाव की स्फुरणा मिट जाती है।
__माया की स्फुरणाओं को रोकने के लिये घी, तेल, चिकने पदार्थों को नहीं खाना चाहिये, शरीर का श्रृंगार आदि नहीं करना चाहिये, इनका पूर्ण त्याग होने पर माया की स्फुरणा से बचा जा सकता है।
लोभ की स्फुरणाओं को रोकने के लिये एक समय भोजन, रूखा-सूखा भोजन, कम खाना, व्रत उपवास रखना, खाने के भाव खत्म होने पर लोभ (इच्छा, चाह, राग, आसक्ति) की स्फुरणायें (भाव) मिट जाते हैं।
२. नियम से रहना - संकल्प शक्ति और दृढ़ता से नियम का पालन करना, सभी काम ठीक समय पर नियमानुसार होना चाहिये, प्रात: से रात्रि पर्यंत अपने समय को निश्चित बना लेना ही नियम है । इस तरह की
नियमानुवर्तिता से भी मन स्थिर होता है । नियमों का पालन, धर्म साधना, खाने-पीने, पहनने, सोने और व्यवहार करने में सभी में होना चाहिये । जितनी दृढता और शक्ति से नियम का पालन करेंगे उतना मन शांत रहेगा।
३. मन की क्रियाओं पर विचार करना - मन के प्रत्येक कार्य पर विचार करना चाहिये । जो-जो संकल्प, सात्विक हो उनकी सराहना करना
और जो-जो संकल्प-विकल्प निम्न अशुभ हो, उनके लिये मन को धिक्कारना चाहिये। जिससे कुछ ही समय में मन बुराइयों से बचकर भलेभले कार्यों में लग जायेगा। पहले मन को बुरे चिंतन से बचाना चाहिये, जब वह आत्मा, परमात्मा संबंधी शुभ चिंतन करने लगेगा तब उसको वश करने में कोई कठिनाई नहीं होगी।
४. मन के कहने में नहीं चलना - मन के कहने पर नहीं चलना चाहिये, जब तक मन वश में नहीं हो जाता, तब तक इसे अपना परम शत्रु मानना चाहिये। यद्यपि यह बड़ा बलवान है, कई बार इससे हारना होगा परंतु साहस नहीं छोड़ना चाहिये, जो हिम्मत नहीं हारता वह एक दिन मन को अवश्य जीत लेता है।
यह मन बड़ा ही चतुर है, कभी डराता है, कभी फुसलाता है, कभी लालच देता है, बड़े-बड़े अनोखे रंग दिखलाता है परंतु कभी इसके धोखे में न आना चाहिये। भूलकर भी इसका विश्वास नहीं करना चाहिये क्योंकि
माया मोह से ग्रसित, क्षणभंगुर, नाशवान विचारों के प्रवाहको मन कहते हैं और यह हमेशा संकल्प-विकल्प ही करता है। इसकी सत्ता हवा जैसी इधर आई, उधर गई इतनी ही है,यह स्थायी नहीं है।
५. मन को सत्कार्य में संलग्न रखना। ६.मन को परमात्मा में लगाना। ७. एक तत्व (एकत्व विभक्त आत्मा) का अभ्यास करना।
८. सत्संग, ध्यान, स्वाध्याय, तत्त्व चर्चा, मंत्र जप, भजन कीर्तन में अधिक से अधिक मन को लगाना।
९. मन के कायों को देखना- मन को वश में करने का एक उत्तम साधन है, मन से अलग होकर निरंतर मन के कार्यों को देखते रहना । जब तक हम मन के साथ मिले हुए हैं, तभी तक मन में इतनी चंचलता है । जिस समय हम मन के दृष्टा बन जाते हैं, उसी समय मन की चंचलता मिट जाती
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