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________________ गाथा - १६७,१६८K ER E-5-16 HE- S E * ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी को रंजायमान करने का स्वभाव रखता हुआ (सचित्त चित्तस्य भाव संजदो * होंति) सचित्त चित्त का भाव रखकर संयमी हो जाता है अर्थात् पंच स्थावर और त्रस जीवों का घात न हो, इसलिये संयम व्रत धारण कर लेता है, अभिप्राय ॐ में मान प्रतिष्ठा रहती है (मन सुभाव पर पिच्छं) मन का स्वभाव पर पदार्थ में लगा रहता है, बाहरी क्रियाओं को ही विशेष महत्व देता है (पज्जय रत्तो सुदुग्गए सहियं) पर्याय में रत होने से दुर्गति ही होती है। (तव वय किरिय स उत्तं) तप, व्रत, क्रिया संयम उसे कहते हैं (सुत सभाव सयल विन्यानं) जो भेदविज्ञान सहित शास्त्रानुसार पालन किया जाये, जिससे जीवन में बड़ी समता शांति और आनंद आता है (अनेय कस्ट अनिस्टं) परंतु मनरंजन गारव वाला अनेक कष्ट सहता है, भीतर से बड़ा क्लेशित, दुःखी, संकल्प-विकल्प में रहता है (गारव भावेन) ऊपर से अपनी मान प्रतिष्ठा पद का गारव भाव रखकर पालता है (निगोय वासम्मि) उसका वास निगोद में होता है। विशेषार्थ - मनरंजन गारव वाला अपना मान बढ़ाने के लिये मुनिपद या श्रावक पद धारण करके संयमी हो जाता है। सचित्त स्थावर काय और त्रसकाय का घात न हो, बाहर से बड़ी शुद्धि संभाल रखता है, व्यवहार चारित्र में बड़ा सतर्क सावधान रहता है। उसका मन कषाय की पुष्टि में व वर्तमान पर्याय के मोह में फंसा रहता है अतएव आत्मा में रत न होने से यथार्थ संयम होता ही नहीं है। सम्यक्दर्शन सहित व्यवहार चारित्र संयम कहलाता है किंतु पर पदार्थ में रत होने से उसके मिथ्यात्व सहित असंयम भाव होता है। ऊपर से मान प्रतिष्ठा या पुण्य की इष्टता, भविष्य के भोगों की लालसा से व्यवहार चारित्र पालते हुए भी इस जीव का दुर्गति में गमन होता है अर्थात् वह सीधा दुर्गति न जाकर देवगति होता हुआ जाता है। सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान सहित ही सम्यक्चारित्र का पालन होता है। व्रत तप क्रिया उसे कहते हैं जो भेदविज्ञान सम्यक्दर्शन सहित शास्त्रानुसार * पालन किया जावे जिससे वर्तमान जीवन में समता शांति आनंद आता है तथा मुक्ति की प्राप्ति होती है। यदि कोई बहुत भारी कष्ट सह करके व्रत तप क्रियाकांड पालता है तथा मन में यह अहंकार रखता है कि मैं तपस्वी हूँ, मैं व्रती, त्यागी साधु हूँ, मैं क्रियाओं का पालन करता हूँ, वह अज्ञानी उन सबको करते हुए भी भावों ******* **** में अपनी कषाय को ही पुष्ट करता है, मान व प्रतिष्ठा का ही इच्छुक है, अतएव भावानुसार वह एकेन्द्रिय निगोद पर्याय के योग्य कर्म बांध लेता है। पुरुष जैसा संकल्प करने लगता है, वैसा ही आचरण करता है और जैसा आचरण करता है फिर वैसा ही बन जाता है। जिन बातों का प्राणी बार-बार विचार करता है धीरे-धीरे वैसी ही इच्छा हो जाती है, फिर उसकी इच्छानुसार वार्ता, आचरण, कर्म और कर्मानुसारिणी गति होती है। जो बुरे विचारों को न छोड़कर उनका रस लेता रहता है, वह कभी बुरे कर्मों से छुटकारा नहीं पा सकता, वह बार-बार प्रतिज्ञा भंग होकर रोता है। वह विचारों के समय असावधान रहता है। विचार से क्या होता है ? बुरा कर्म न करूंगा, उसी के त्याग की मैंने प्रतिज्ञा की है। इस तरह अपने को धोखा देकर विचार के रस का अनुभव करता हुआ, वह कभी व्यसन से आत्म त्राण नहीं कर पाता है, मनरंजन गारव इसी का नाम है। शास्त्रों में सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र इन तीनों की एकता को मुक्ति मार्ग कहा है और तीनों की पूर्णता मुक्ति है। मनुष्य का चारित्र पूर्ण रूप से निष्कलंक तभी होता है जब उसके अंत:करण में रहने वाले मल, विक्षेप एवं आवरण यह तीन दोष मिट जाते हैं। निष्काम कर्म योग से मल, उपासना से विक्षेप एवं ज्ञान से आवरण दोष दूर होता है। दुश्चरित्र से विरतन होने वाला, मन और इन्द्रियों को संयम में न एखने वाला, चित्त की स्थिरता का अभ्यास न करने वाला एवं विक्षिप्त मन वाला मनुष्य केवल बिल से आत्मा को प्राप्त नहीं कर सकता। बेडीचाहे लोहे की हो या सोने की,बंधनकारिणी तो दोनों ही हैं अत: शुभाशुभ सभी कमों का क्षय होने पर ही मुक्ति होती है। कर्म क्षय तो ज्ञानमयी अनासक्त वीतराग भाव से ही होता है। कर्म से संतति उत्पन्न करने से या धन से मुक्ति नहीं होती, वह तो आत्मज्ञान से ही होती है। प्रश्न - जब मनुष्य के साथ मन की सत्ता है और मन बड़ा चंचल हठीला दृढ़ और बलवान है। इस मनरंजन गारव में फंसा जीव दु:ख भोगता, दुर्गति जाता है फिर इसको जानने का क्या उपाय है? E-E-E E- KHEER E- १२०
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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