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* ******* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
गाथा- १६६-१६८** *** * उदात्त होकर तथा अपने आत्म हित में रुचि लेकर तुच्छ प्रकार की क्रिया कर्म
मनरंजन गारव में रजोगुण और तमोगण की प्रधानता रहती है। काम, * करना छोड़ देता है तथा उपयोगी दिशा में संघर्ष करना प्रारंभ कर देता है, क्रोध, लोभ यह तीनों नरक के द्वार हैं तथा रजोगुण से पैदा होते हैं। मोह यह पलायन नहीं बुद्धिमत्ता होती है, जीवन में स्वस्थ्य मोड होता है।
अज्ञान प्रमाद यह तीनों तमोगुण से उत्पन्न होते हैं। काम, क्रोध, लोभ और संत वृत्ति अपनाने पर तथा आध्यात्मिक रुचि ग्रहण कर लेने पर मनुष्य मोह के आधीन होकर ही मनुष्य पाप कर्म करके दुःख पाता है एवं संसार धन अथवा पद के लिये लौकिक संघर्ष से अधिक से अधिक संभव सीमा तक बंधन में पड़ता है। हटकर ध्यान के अभ्यास, प्रार्थना, परोपकार, ज्ञान साधना आदि में जुट
जिनवाणी इष्ट की प्राप्ति एवं अनिष्ट के परिहार का उपाय बताते हुए जाता है। यह मनरंजन का मोड़ रुचि परिष्कार कहलाता है।
अतीन्द्रिय ज्ञान का वर्णन करती है, जिनेन्द्र परमात्मा का उपदेश यही है कि मन का स्वभाव चंचल है, वह संसारी कामना वासनाओं में ही लिप्त 3 मनुष्य शास्त्र विधि का अनुसरण करता हुआ अपनी अशुभ प्रवृत्तियों पर रहता है। लोगों की बातों में लगे रहना ही मनरंजन गारव है जो दुर्गति ले जाने नियंत्रण रखे तथा अपने गुण, कर्म, स्वभाव के अनुकूल धर्म साधना करता वाला है। इसी बात को आगे गाथा में कहते हैं
हुआ अंत:करण की शुद्धि पूर्वक परम तत्त्व शुद्धात्म स्वरूप के ज्ञान की मन मूलं चंचल उत्तं, चंचल सभाव सरनि संसारे।
उपलब्धि करके शाश्वत शांति और नित्य आनंद मोक्ष को प्राप्त करे। जिन उत्तं नहु पिच्छं, जन उत्तं सहाव गारवं भनियं ॥१६॥
मनरंजन गारव वाला जीव मन की चंचलता होने से इन बातों को न
सुनता है, न समझता है उसे यह बातें बड़ी कठिन और दुखद लगती हैं। यह अन्वयार्थ-(मन मूलं चंचल उत्तं) मन का स्वभाव चंचल कहा गया
कठिन साधना है जिसमें एक ओर तो अध्यात्म शास्त्र का आश्रय लेकर है (चंचल सभाव सरनि संसारे) यह चंचल स्वभाव ही संसार में घुमाता है
स्वाध्याय श्रवण एवं मनन के द्वारा सत् तथा असत् का ज्ञान प्राप्त किया (जिन उत्तं नहु पिच्छं) वह जिनेन्द्र कथित तत्त्व पर श्रद्धा नहीं लाता है,
जाता है तथा दूसरी ओर विवेक और वैराग्य का अवलंबन लेकर रजोगुण और जिनेन्द्र की बात ही नहीं सुनता है (जन उत्तं सहाव गारवं भनियं) संसारी
तमोगुण पर आश्रित सम्पूर्ण असत्प्रवृत्तियों, पापों, दुष्कर्मों, दुष्ट आचारों एवं जीवों की कही हुई बातों पर श्रद्धान करके उनमें रंजायमान होकर मद करता
आसुर भावों का सर्वथा परित्याग करके सत्व गुण पर अवलंबित दैवी सम्पदा है, यही मनरंजन गारव कहा गया है।
के गुणों का संचय किया जाता है। सात्विक गुणों का संचय धर्माचरण है। विशेषार्थ-मन इन्द्रियों के विषयों का लोभी होता है, मन प्रतिष्ठा का
मानवी प्रकृति का दैवी प्रकृति में रूपांतरित करना तप है, इसी से लोभी होता है, धन की तृष्णा में आतुर रहता है, दूसरों से ईर्ष्या भाव रखता *
अज्ञान से मुक्ति मिलती है एवं मोक्ष की प्राप्ति होती है। है। इच्छित पदार्थों के न मिलने पर खेद खिन्न दु:खी रहता है, रात-दिन
__ मनरंजन गारव वाला, इसके विपरीत संसारी प्रपंच, पर्यायी परिणमन संकल्प-विकल्प ही करता है। यह मन की चंचलता संसार में ही भ्रमाती है।
में रत रहता है जिसका परिणाम दुर्गति के दुःख भोगना होता है । इसी बात चंचल मन होने से जिनेन्द्र परमात्मा का तत्त्व उपदेश, जिनवाणी का स्वाध्याय
को आगे गाथा में कहते हैं - अपने आत्म हित की बात बिल्कुल नहीं सुहाती है, धर्म चर्चा में मन ही नहीं
मनरंजनस सहावं, सचित्त चित्तस्य भाव संजदोहोति। लगता है। संसारी प्रपंच, लोगों की कही हुई बातों पर विश्वास करके उन्हीं पर
मन सुभाव पर पिच्छं, पज्जय रत्तो सुदुग्गए सहियं ॥१७॥ चलता है। धन, संपत्ति, प्रतिष्ठा अपनी प्रशंसा बढ़ते हुए देखकर बड़ा आनंदित तव वय किरियस उत्तं, मृत सभाव सयल विन्यानं। रहता है। विषयों की पुष्टि, नाम बड़ाई में धन खर्च करते हुए बड़ा गारव करता
अनेय कस्ट अनिस्टं, गारव भावेन निगोय वासम्मि ।। १५८॥ है, इस गारव भाव से पाप को ही बांधता है।
अन्वयार्थ - (मनरंजन स सहावं) मनरंजन के स्वभाव वाला, मन ११९
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