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________________ गाथा-१६४,१६५-------- 新北市要改行帝, 常常 -------- ********* श्री उपदेश शुद्ध सार जी प्रतिष्ठित रहकर विवेक पूर्वक धर्म का अनुपालन करना । मनुष्य का मन बड़ा चंचल है, इसी के कारण वह बंधन एवं मोक्ष को प्राप्त होता है। पाप वह है, जिससे परिणाम में अपना तथा दूसरे का अहित हो। पुण्य वह है, जिससे परिणाम में अपना तथा दूसरे का हित हो। घोर तपस्या या गहरी पूजा पाठ अथवा जप ध्यान करने वाले किंतु मिथ्यात्व सहित मनरंजन गारव वालों की क्या गति होती है इसके अनेक दृष्टांत ग्रंथों में मिलते हैं। जो मनरंजन गारव में रंजायमान है उसकी विद्या व्यर्थ है, उसे तपस्या, त्याग और शास्त्राभ्यास से भी कोई लाभ नहीं है। उसका एकांत सेवन और मौन भी निष्फल है। इसी बात को आगे गाथा में कहते हैं मन रंजन सुभावं, सोभा सहकार जलस्य सुचि चित्तं । अन्यानं मिच्छत्तं, जलं सहावेन थावरं पतं ॥ १६४ ।। सचित्त सहावं धरनं, चित्त सहावेन अन्मोय पर पिच्छं। पज्जावस्य उवन्नं,पज्जय रत्तो तिरिय दुष्य वीयम्मि॥ १६५॥ अन्वयार्थ - (मन रंजन सुभावं) मनरंजन गारव वाले का स्वभाव होता है कि (सोभा सहकार) शरीर को सजा धजाकर रखता है, अच्छे वस्त्र आदि श्रृंगार करता है, अपने को शोभायमान मानता है, शरीर के आदर सत्कार में फूला रहता है (जलस्य सुचि चित्तं) जल की शुद्धि से अपने आपको पवित्र मानता है, तीर्थयात्रा आदि पवित्र स्थान, पवित्र नदी आदि में स्नान करके अपने आपको धन्य मानता है (अन्यानं मिच्छत्तं) यह सब अज्ञान मिथ्यात्व है (जलं सहावेन थावरं पत्तं) जल के स्वभाव, तीर्थ आदि पवित्र नदियों में स्नान करके अपने को पवित्र शुद्ध मानने वाला स्थावर गति का पात्र बनता है। (सचित्त सहावं धरनं) सचित्त कंद मूल फल जल आदि के सेवन से अपने को पवित्र शुद्ध तपस्वी मानने वाले, सचित्त स्वभाव को धारण करने * वाले (चित्त सहावेन अन्मोय) जो चित्त स्वभाव, मनरंजन गारव का ही आलंबन * रखते हैं, बाह्य क्रिया कर्म में ही अपने को बड़ा मानते हैं (पर पिच्छं) पर में ही * दृष्टि रखते हैं, शरीरादि संसार की तरफ ही देखते हैं (पज्जावस्य उवन्न) पर्याय को ही पैदा करते हैं अर्थात् निरंतर शुभाशुभ कर्म का ही बंध करते हैं * (पज्जय रत्तो) पर्याय में रत रहते हैं (तिरिय दुष्य वीयम्मि) वे तिर्यंच गति के ***** * * *** दुःख का बीज बोते हैं। विशेषार्थ- मनरंजन गारव वाले का स्वभाव बड़ा विचित्र होता है, शारीरिक बाह्य शोभा के लिये नित नये-नये उपक्रम करता रहता है, शरीर को श्रृंगारित सजा-धजा कर रखता है, बाह्य में अपने आदर सत्कार में फूला रहता है, साथ में तीर्थयात्रा आदि करके, पवित्र नदी में स्नान करके अपने को पवित्र शुद्ध श्रेष्ठ मानता है। ऐसे लोगों में अज्ञान तो यह होता है कि मन की पवित्रता आत्मा की शुद्धि तो अहिंसा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शील आदि का पालन करने से होती है; परन्तु वह इन बातों पर लक्ष्य न देकर केवल जल आदि के स्नान से अपने को पवित्र शुद्ध मान लेते हैं तथा मिथ्यात्व यह होता है कि जिस नदी आदि के स्नान से प्राणी हिंसा होती है उसको धर्म मानते हैं, इस तरह शरीर का राग और मन का रंजायमानपना स्थावर गति में ले जाता है। सचित्त जल, फल-फूल आदि से अपनी पवित्रता शुद्धि मानना, चित्त को रंजायमान करना, पर शरीर आदि संसार की तरफ देखना और अपने को श्रेष्ठ मानना, पर्याय की विशेषता से पर्याय में रत रहना, तिथंच गति के दुःख का बीज बोना है। मनरंजन गारव मनुष्य को नई-नई कल्पनाओं, योजनाओं में फंसाता है। मन की कभी संतुष्टि होती नहीं है, जितना माया का फैलाव फैलता है उतनी आशा तृष्णा, आकांक्षा, कामना, वासना बढ़ती जाती है । माया के तीन रूप कंचन, कामिनी, कीर्ति ही मनरंजन गारव के प्राण हैं, इनकी कभी पूर्ति होती नहीं है इसलिये मन कभी संतुष्ट होता नहीं है। __उलझन और समस्या बाहर संसार में नहीं है, मन में है। बाहर तो केवल परिस्थितियाँ हैं। उलझनों में फंसकर वमको घोट लेने के बजाय न उन्हें चुनौती देकर उनसे छुटकारा पा लेना मोक्ष है, मुक्ति है। निश्चिन्त और प्रफुल्ल मन स्वर्ग है तथा उलझा हुआ मन नरक है, जिसके हम स्वयं जिम्मेदार है। मनुष्य का भविष्य हाथ की रेखाओं और ग्रहों द्वारा कदापि बांधा नहीं जा सकता है। मनुष्य की इच्छा शक्ति और पुरुषार्थ मनुष्य का भविष्य बनाती है। विवेक द्वारा मनरंजन गारव को मोड़ा जा सकता है। धीरे-धीरे जब मनुष्य विचार क्षेत्र में ऊंचे स्तर पर आ जाता है तब वह जीवन में अधिक E-E-S-IEI ११८
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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