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गाथा- १६२,१६३***
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* ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी 2 मान-सम्मान, धनादिकी इच्छा रहने से पापों से बच नहीं सकता
क्योंकि कामना से ही सब पाप होते हैं। जिसके मन और इन्द्रियां वश * में नहीं होती, वह कामना के कारण फल में आसक्त होकर बंध जाता * है। मन में दुर्भाव उत्पन्न होते ही अशांति हो जाती है। मन में सद्भाव * होते ही शांति होने लगती है।
जो जीव जितनी नाशवान वस्तुओं की कामना का त्याग करता है उतनी समता, शांति, आनंद सद्गुण उसमें बढ़ते जाते हैं और जितनी नाशवान वस्तुओं की कामना करता है, उतनी अशांति, विषमता, दुःख, संताप आदि दुर्गुण आते हैं।
मनरंजन गारव ही कामना है, इसके कारण जीव क्या-क्या करता है यह आगे गाथा में कहते हैं -
तवं च तीव्र सहियं, सम्मत्तं सद्ध मिच्छ सभावं । पर पिच्छंतो गारव, पर पज्जाय नंत दुष्य वीयम्मि ॥ १२ ॥ मन उववन्न सहावं, मन ससहावं च सहनि उवसर्ग। अन्यानं पिच्छंतो, तव पंड नरय दुग्य वीयम्मि ।। १३॥
अन्वयार्थ - (तवं च तीव्र सहियं) वह तीव्र तप करता है (सम्मत्तं सुद्ध मिच्छ सभावं) शुद्ध सम्यकदर्शन न होने से, मिथ्यात्व सहित, पर शरीरादि की क्रिया से भला होना मानता है (पर पिच्छंतो गारव) पर को पहिचानने, पुद्गल की तरफ दृष्टि होने से गारव बढ़ता है (पर पज्जाय नंत दुष्य वीयम्मि) पर पर्याय में रत रहने से अनंत दु:ख का बीज बोता है।
(मन उववन्न सहावं) मन में संकल्प-विकल्प पैदा होने का स्वभाव है (मन ससहावं च सहनि उवसग्गं) इस मन के संकल्प-विकल्प स्वभाव सहित वह अनेक उपसर्गों को सहन करता है (अन्यानं पिच्छंतो) अज्ञान को जानता पहिचानता है अर्थात् अपने स्वरूप का बोध तो होता नहीं, बाहरी शारीरिक क्रिया में ही मगन रहता है (तव षंड) विशेष परिस्थिति में तप खंडित कर *देता है (नरय दुष्य वीयम्मि) इससे नरक के दु:ख का बीज बोता है।
विशेषार्थ- मनरंजन गारव की विशेषता से तीव्र तप करता है परंतु अपनी आत्मानुभूति शुद्ध सम्यक्दर्शन न होने से शारीरिक क्रिया बाह्य तप * को ही इष्ट कल्याणकारी मानता है, मिथ्यात्व सहित पर को ही बताने, पर की
अपेक्षा से कठिन तपस्या करता है परंतु इससे गारव ही बढ़ता है, पर पर्याय की दृष्टि होने से तप मद बढ़ता है जो द:ख और दुर्गति का कारण होता है।
मन का स्वभाव संकल्प-विकल्प करने का है और वह निरंतर ही चलता रहता है, कभी आगे की कल्पनाओं में झुलाता है, कभी पीछे के कार्यों में उलझाता है। इस मन के आधीन बड़े उपसर्ग भी सहता है और उससे मानता है कि हम उपसर्ग सह लेंगे तो हमारा बहुत मान, प्रभावना प्रसिद्धि होगी, हमको बहुत पुण्य कर्म का बंध होगा, जिससे देवगति के सुख भोगने को मिलेंगे, ऐसे अज्ञान सहित पर पर्याय का लक्ष्य रहने से परिणामों में कषाय भाव होने से पाप कर्म का ही बंध होता है। विशेष परिस्थितियों में तप खंडित भी कर देता है, इस प्रकार मनरंजन गारव के वशीभूत नरक के दु:खों का बीज बोता है।
कठिन तपस्या करते हुए यदि सम्यक्त्व भाव है और आत्म ध्यान में जमने का, कर्मों की निर्जरा का उद्देश्य है तब तो वह शुद्ध तप है; परंतु यदि मिथ्यात्व सहित तप है तो वहाँ किसी कषाय की पुष्टि का उद्देश्य है इसलिये वह तप मिथ्या तप है। मिथ्या तप करते हुए दृष्टि शरीर पर व कषाय की पुष्टि पर रहती है, इससे तप मद बढ़ता है। शारीरिक तप पुद्गल की पर्याय है, इसमें रत होने से तथा इसका गारव और भला होना मानने से मिथ्यात्व कर्म का बंध होता है जो दु:ख रूपी फल को देता है।
शांत भाव हो, ज्ञान हो, चारित्र हो अथवा तप हो,यदि यह सम्यक्दर्शन सहित है तो इसका मूल्य महारत्न के समान है। यदि सम्यक्त्व रहित हो तो उसकी कीमत कंकड़ पत्थर के समान तुच्छ है।
मनरंजन गारव वाला जीव आत्मज्ञान रहित तप करते हुए परीषह व उपसर्गों को सहन करता है, उस उपसर्ग सहन में उसका अभिप्राय वीतराग भाव व आत्मानुभव नहीं होता है किंतु अज्ञान भाव ही होता है। हम उपसर्ग
सह लेंगे तो हमारा बहुत मान होगा, हमको बहुत पुण्य कर्म का बंध होगा @ जिससे हम भविष्य में नाना प्रकार के विषय भोग भोगेंगे। कषायों की वासना,
भविष्य की कामना सहित तप खंडित भी कर देता है जिससे नरक के दु:ख प्राप्त होते हैं।
जीव के बहु जन्मार्जित पुण्यों के फलस्वरूप उसे देव दुर्लभ मानव शरीर उपलब्ध होता है। जीवन का प्रमुख उद्देश्य है-अपने सत्स्वरूप में
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