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गाथा - १६१EKH-KHE
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18-1-4-**-*-*-93-94 श्री उपदेश शुद्ध सार जी को ही सही संयम व्रत तप होते हैं (छाया मिच्छत्त सल्य दुर्बद्धी) मिथ्यात्व
सहित व्रत तप ग्रहण करने से शल्य और दुर्बुद्धि बनी रहती है (मिच्छा मय *ससहावं) मिथ्यात्वमय स्वभाव होने से (गारव उववन्न दुष्य वीयम्मि) गारव पैदा होता है जो कि दु:ख का बीज है।
विशेषार्थ- मनरंजन गारव में फंसा जीव सांसारिक विषय-कषाय में तो लिप्त रहता ही है, यदि उसका मनचाहा नहीं होता, मान सम्मान ऐसे नहीं मिलता तो वह व्रत तप ग्रहण कर लेता है, त्यागी साधु हो जाता है परंतु मिथ्यात्व और कुज्ञान सहित होने से कुज्ञान ही बढ़ता है। तीव्र मिथ्यात्व से मायाचारी करता है, उसके भीतर तीव्र गारव भाव अनंतानुबंधी कषाय व कृष्ण लेश्या रूप हो जाता है, जिससे नरक में वास करना पड़ता है।
संयम उसे कहते हैं जहाँ सम्यक्दर्शन के साथ आत्म स्वभाव में स्थिरता हो, इसके विपरीत मनरंजन गारव के लिये व्रत संयम धारण करता है तो मिथ्यात्व सहित शल्य और दुर्बुद्धि ही रहती है, जिससे लोक मूढता, देव मूढता, पाखंडी मूढता सहित मिथ्यात्व में लिप्त रहता है। बाहरी संयम तप से विशेष गारव बढ़ जाता है, अपने को दूसरे से ऊंचा समझता है, दूसरों को नीचा देखता है, इस तीव्र मान के भाव से पाप कर्म बांधता है और भविष्य में दु:खों का बीज बोता है।
मनरंजन गारव से प्रेरित होकर जीव मिथ्यात्व सहित मुनि या श्रावक के व्रतों को धारण करके व नाना प्रकार तप करके मिथ्याज्ञान के प्रभाव से बड़ा भारी घमंड करते हैं। हम व्रती हैं, हम तपस्वी हैं, साधु हैं ऐसा तीव्र मान रखकर अपनी प्रतिष्ठा कराना चाहते हैं, यदि प्रतिष्ठा में कमी हो तो क्रोध करते हैं। उनके भीतर बाहरी चारित्र व तप पालते हुए भी मायाचार बढ़ जाता है व लोभ कषाय की तीव्रता हो जाती है,खान-पान इच्छानुकूल चाहते हैं। मान-सम्मान में फूले रहते हैं, यदि नहीं मिलता तो भक्तों को बुरा-भला कहते हैं, वे मिथ्यात्व सहित नरक जाने लायक पाप बांधकर नरक चले जाते हैं और दु:ख भोगते हैं।
मनरंजन गारव में फंसा जीव क्या-क्या करता है, उसका परिणाम * क्या होता है ? वह यहाँ बताया जा रहा है। प्रथम तो संसारी धन वैभव, विषय-कषाय, पाप-परिग्रह में ही लगा रहता है, इसमें ही आनंद मानता है और यदि संसारी संयोग मनोनुकूल नहीं मिलते तो व्रत तप धारण कर लेता
है, त्यागी साधु बनकर अपने मन की पूर्ति करता है यदि इससे भी संतुष्ट नहीं होता है तो नाना प्रकार के शास्त्र पढ़कर बड़ा ज्ञानी बनता है। इसके लिये आगे गाथा कहते हैं
सुतं च अनेय भेयं, अंग पुवाइ मिच्छ संजुक्तं ।। गारव मएहि रइयं, मनरंजन राग नरय वासम्मि ॥ १६१॥
अन्वयार्थ - (सुतं च अनेय भेयं) कोई अनेक प्रकार शास्त्रों को जानता है, नाना प्रकार के शास्त्र पढ़ता है (अंग पुव्वाइ मिच्छ संजुत्तं) यहाँ तक कि ग्यारह अंग नौ पूर्व तक का ज्ञान कर लेता है परंतु मिथ्यात्व में लीन रहता है (गारव मएहि रइयं) उसका गारव भाव मद से रचा हुआ होता है, वह इसी ज्ञान के मद में फूला रहता है (मनरंजन राग नरय वासम्मि) इस मनरंजन राग का फल नरक वास करना पड़ता है।
विशेषार्थ-कोई त्यागी साधु अनेक प्रकार के शास्त्रों को जानता है, यहाँ तक कि ग्यारह अंग नौ पूर्व तक का ज्ञान रखता है परंतु मनरंजन गारव से मिथ्यात्व सहित होता है, उसको सम्यक्दर्शन नहीं है तो उसके भीतर न शुद्धात्मा की रुचि होती है, न मोक्ष तत्त्व की पहिचान होती है किंतु भीतर कषाय वासना भरी होती है, जिससे उसे अपने शास्त्र ज्ञान का बड़ा राग और घमंड होता है। उस श्रुतज्ञान से कषायों के घटाने का काम नहीं होकर कषायों के बढ़ाने का काम होता है। वह शास्त्र ज्ञान से मन को रंजायमान करके उन्मत्त रहता है। तीव्र कषाय से मनरंजन राग के कारण अनेक शास्त्रों का ज्ञाता नरक जाने योग्य कर्म बांधकर नरक चला जाता है।
अविनाशी निज शुद्धात्म तत्त्व का लक्ष्य होने से विनाशीक वस्तुएं स्वत: मिलती हैं, आती हैं परंतु विनाशीक धन वैभव शरीर मन आदि का लक्ष्य होने से अविनाशी तत्त्व की प्राप्ति नहीं होती और विनाशीक वस्तुओं के लिये भी चिंता करना पड़ेगी एवं परिश्रम उठाना पड़ेगा। अविनाशी तत्त्व की प्राप्ति के लिये कामना, ममता और आसक्ति (राग) का त्याग मुख्य आवश्यक है।
किया तो वर्तमान परिस्थिति और पात्रता के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है परंतु जो मिथ्यात्व, मायाचार, मलिनता, पतन की बात होती है.वह कामना के कारण होती है। कामना रखकर के पारमार्थिक ग्रन्थ पढ़ें. दूसरों को सुनायें तो लक्ष्य,
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