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गाथा- १५९,१६०***
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* ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी * हैं (मन सहकारेन सहाव संजुत्तं) मन मनुष्य की एक विशेष जाग्रत शक्ति है, * जिसके सहयोग से संसारी विषय कषाय की प्रवृत्ति से नरक निगोद की प्राप्ति * होती है तथा स्वरूप साधना, धर्म की ओर उन्मुख होने से मुक्ति की प्राप्ति * होती है, मन के सहयोग से ही स्वभाव में लीन हुआ जाता है (मन उववन्न
सहावं) मन का निरंतर चलने, सक्रिय रहने का स्वभाव है (मन आनन्द गारवं भनियं) मन के आनंद को ही गारव कहते हैं क्योंकि यह बाह्य विभूति, धनादि ऐश्वर्य में ही प्रसन्न रहता है।
(गारव मन संजुत्तं) गारव में लगा हुआ मन (गारव संसार सरनि मोहंधं) अहंकार वश आठ मद में फंसाकर संसार परिभ्रमण कराता है और मोह से अंधा करता है (मन विषयं च सहावं) मन पांचों इन्द्रियों का राजा है,पंचेन्द्रिय के विषयों में रत रहना ही इसका स्वभाव है (मन सहकारेन गारवं दिटुं) मन का सहकार करने से गारव ही दिखाई देता है, अपना आत्म स्वरूप दिखाई नहीं देता।
विशेषार्थ- मन एव मनुष्याणां कारणं बंध मोक्षयोः । मन क्या पदार्थ है ? यह आत्मा और अनात्मा पदार्थ (शरीर) के बीच में रहने वाली एक विलक्षण वस्तु है, यह स्वयं अनात्म और जड़ है किंतु बंध और मोक्ष इसी के आधीन है। मन ही संसार है, मन नहीं तो जगत नहीं। मन विकारी है, इसका कार्य संकल्प-विकल्प करना है। यह जिस पदार्थ को भली भाँति ग्रहण करता है स्वयं भी तदाकार बन जाता है । ज्ञानी का मन आत्म स्वरूप में लगता है, अज्ञानी का मन संसारी प्रपंच रागादि में लगा रहता है। सारे अनर्थों की उत्पत्ति राग से होती है, राग न हो तो मन प्रपंचों की ओर न जाये। किसी भी विषय में गुण और सौंदर्य देखकर उसमें राग होता है, इसी से मन उस विषय में प्रवृत्त होता है, पांचों इंद्रियों का मन राजा है, इंद्रियों के विषयों में रत रहना ही मन का स्वभाव है, यह निरंतर सक्रिय रहता है । विचारों के प्रवाह को ही मन
कहते हैं, इसका स्वभाव बड़ा चंचल चपल है। मन बाह्य वैभव धन-धान्य, * कुटुम्ब-परिवार, पद, मान, प्रतिष्ठा आदि परिग्रह को देखकर मद करता है,
बड़ा प्रसन्न रहता है, मन के आनंद को ही गारव कहते हैं। मन पांचों इन्द्रियों * के विषयों में ही जीव को अंधा रखता है। इस मनरंजन गारव में फंसा जीव * संसार में ही परिभ्रमण करता है, मोह में अंधा रहता है, पाप विषय कषायों में
रत रहने से दुर्गति जाता है।
वैसे तो मन अचेतन है अत: उसमें क्रिया संभावित नहीं है तथापि आत्मा के साथ संपर्क होने से मन में क्रिया का अध्यास (राग) माना गया है। मन को अति चंचल तथा गतिशील कहा गया है। मन शरीर तथा इन्द्रियों पर सतत् नियंत्रण रखता है अत: मनुष्य कभी भी शांति का अनुभव नहीं कर पाता है। मन के प्रमुख कार्य - इन्द्रियों के साथ संपर्क करके विषयों को ग्रहण करना, इन्द्रियों तथा शरीर को नियंत्रित रखना, अपने आपको नियंत्रित रखना,
विचारना, ध्यान करना, चिंतन-मनन करना आदि । मन अपना कार्य पूरा 3 करता है, बाद में बुद्धि प्रवृत्त करती है तत्पश्चात् शरीर अपना कार्य प्रारंभ करता है।
मन दो प्रकार से प्रवृत्त होता है - १. विकृत मन-काम, क्रोध, अहंकार, ईर्ष्या, लोभ, मद, मोह, भय, चिंता आदि विकार हैं जो संसार के कारण हैं।
२. स्वकृत मन-आत्म स्वरूप के चिंतन मनन ज्ञान ध्यान वैराग्य में प्रवृत्त होना, इससे मुक्ति की प्राप्ति होती है।
मन लोभी मन लालची, मन चंचल मन चोर।
मन के मते न चालिये,मन पलक पलक में और॥ ___ मनरंजन गारव, इन्द्रिय विषय सेवन में ही प्रवृत्त नहीं करता है, मनरंजन गारव मान प्रतिष्ठा पूजा आदि के लिये व्रत तप आदि में भी प्रवृत्त करता है। इसी बात को आगे गाथा में कहते हैं -
वय तव गहन उवन्न, छाया कुन्यान संजुत्तवय गहनं।
कुन्यानं च उवन्नं, गारव अन्मोय नरय वासम्मि ॥ १५९ ॥ ।
संजम सम्मत्त सुभावं, छाया मिच्छत्त सल्य दुर्बुद्धी। मिच्छा मय ससहावं, गारव उववन्न दुष्य वीयम्मि ॥ १६०॥
अन्वयार्थ - (वय तव गहन उवन्नं) मनरंजन गारव व्रत तप ग्रहण करने के लिये प्रेरित करता है क्योंकि व्रत तप धारण करने से लोक में पूजा प्रतिष्ठा होगी (छाया कुन्यान संजुत्त वय गहनं) कुज्ञान सहित व्रत का ग्रहण करता है, मिथ्यात्व के साथ कुज्ञान होता है (कुन्यानं च उवन्न) इससे कुज्ञान ही पैदा होता है, बढ़ता है (गारव अन्मोय नरय वासम्मि) मनरंजन गारव की पूर्ति के लिये उसमें लगे रहने से नरक में वास करना पड़ता है।
(संजम सम्मत्त सुभावं) संयम तो सम्यक्त्व का स्वभाव है, सम्यक्त्वी
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