SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा- १५७,१५८*** * ** E: KESH * ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी * ऐसा पुण्य बंध होता है जिससे वे सद्गति और मुक्ति पाते हैं। इस शरीर का सदुपयोग सच्चे ज्ञान को उपलब्ध करने में ही करना * चाहिये जिसके लिये निम्न उपाय हैं - १. सदाचार और संयम का पालन करते हुए मन और इन्द्रियों को वश * में करना। २. केवल नाम और यश के लिये धर्म का दम्भ नहीं करना चाहिये। ३. अपने देह के कर्मों, अपने मन के विचारों अथवा अपने वचनों से दूसरों को उद्वेग नहीं पहुंचना चाहिये। ४. दूसरों से उत्तेजना मिलने पर भी सहिष्णुता का अभ्यास करना चाहिये। ५. दूसरों (सब जीवों) से अपने व्यवहार में सरलता विनम्रता रखना। ६. ऐसे सद्गुरु को खोजना चाहिये जो आत्मानुभूति की ओर क्रमश: मार्गदर्शन कर सकें फिर उनकी शरण होकर सेवा भाव से तत्त्व जिज्ञासा करना। ७. सम्यक् दर्शन के लिये शास्त्रीय विधि विधान का पालन करना चाहिये। ८. शास्त्र सिद्धांत में दृढ़ निष्ठा रखना। ९. सम्यक्दर्शन में बाधक क्रियाओं (पच्चीस दोषों) का पूर्ण रूप से त्याग करना। १०. शरीर धारण की आवश्यकता से अधिक पदार्थों का ग्रहण, संग्रह नहीं करना। ११. स्थूल जड़ देह में अहंकार नहीं करना और न देह के सम्बंधियों से ममता रखना चाहिये। १२. निरंतर स्मरण रखना चाहिये कि जब तक जड़ देह का संयोग रहेगा तब तक बारम्बार जन्म-मरण, जरा-व्याधि के दुःख भोगना पड़ेंगे, इसके लिये बड़ी-बड़ी योजनायें बनाना व्यर्थ है। १३. स्त्री, संतान और घर में शास्त्र की आज्ञा से अधिक आसक्ति नहीं रखना चाहिये। * १४. मन की कल्पना (संकल्प-विकल्प) के इष्ट-अनिष्ट से सुख-दु:ख 2 नहीं मानना। १५. शुद्धात्म स्वरूप के भक्त बनकर अनन्य भाव से उसकी आराधना करना। १६. ऐसे एकान्त स्थान में रहना चाहिये, जहाँ का वातावरण प्रिय हो, शांत और आत्मविद्या के अनुकूल हो, विकल्प के कारण व ऐसे स्थानों से बचना चाहिये। १७. यह मानव योनि सबसे विकसित तब समझी जाती है, जब इसमें पूर्ण अध्यात्म ज्ञान की चेतना हो अर्थात् सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप का परिपूर्ण पालन हो। इस प्रकार इस कलरंजन की दिशा मोड़ने से सच्चे ज्ञान पूर्वक मुक्ति की प्राप्ति होती है। भव बंधन से मुक्ति का पथ पूर्णरूप से ज्ञान वैराग्य पर निर्भर है। इस प्रकार इस कलरंजन दोष से बचकर इस शरीर का सदुपयोग धर्म साधना कर मुक्ति प्राप्त करने में ही मानव की श्रेष्ठता है। जीव के संसार परिभ्रमण का कारण अज्ञान है, अज्ञान का मूल राग है। राग के तीन भेद हैं- १. जनरंजन राग २. कलरंजन दोष ३. मनरंजन गारव । जिसमें जनरंजन राग का स्वरूप तथा कलरंजन दोष के स्वरूप का वर्णन किया, आगे मनरंजन गारव का स्वरूप कहते हैं। प्रश्न-मनरंजन गारव किसे कहते हैं? समाधान-मन की संतुष्टि, मन की प्रसन्नता के लिये नाना प्रकार का जो शुभाशुभ क्रिया कर्म किया जावे, जिससे अहंकार, आठ प्रकार का मद बढ़े उसे मनरंजन गारव कहते हैं, जो जीव को संसार में भ्रमाता, दुर्गति ले जाता है। प्रश्न - इस मनरंजन का स्वरूप क्या है, इसमें क्या-क्या होता है। इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - मनरंजन गारव उत्तं, मन सहकारेन सहाव संजुत्तं । मन उववन्न सहावं, मन आनन्द गारवं भनियं ॥ १५७ ॥ गारव मन संजुत्तं, गारव संसार सरनि मोहंधं । मन विषयं च सहावं,मन सहकारेन गारवं दिह ।। १५८ ॥ अन्वयार्थ - (मनरंजन गारव उत्तं) मनरंजन गारव का स्वरूप कहते ११४
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy