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गाथा- १५५,१५६****
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2-4-******* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
चारित्र बस यह ही कि,रे व्यवहार सब निस्सार है। मैं पूर्ण ज्ञानानंदहूँ,यह चितवन ही सार है॥
(चंचल जी) इस मनुष्य भव की सार्थकता सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र सहित तप का पालन कर मुक्ति को प्राप्त करने में ही है, इसमें छोटे-बड़े का भेद नहीं है, ज्ञान ज्योति जगाना ही श्रेयस्कर है। इसी बात को आगे गाथा में कहते हैं
लहु दीरघ नहु पिच्छड़, न्यान सहावेन अन्मोय संजुत्तं। हितमित परिनइ सुद्धं, कोमल परिनाम अन्मोय संजुत्तं ॥१५५॥ सम्मत्त सहित दंसन, न्यान सहित चरन तवयरनं । ममलं ममल सहावं, अन्मोयं न्यान सुग्गए जंति॥१५६।।
अन्वयार्थ-(लहु दीरघ नहु पिच्छइ) छोटा बड़ा मत देखो, धर्म साधना मुक्ति प्राप्त करने में आयु, अवस्था, परिस्थिति नहीं देखी जाती (न्यान सहावेन अन्मोय संजुत्तं) अपने ज्ञान स्वभाव का आलम्बन रखो और उसी में लीन रहो (हितमित परिनइ सुद्धं) अपने शुद्धात्म स्वरूप में परिणमन करना ही हितकारी
और इष्ट है (कोमल परिनाम अन्मोय संजुत्तं) अपने कोमल सरल सहज भाव रखो, ज्ञान का आलम्बन रखो और उसमें ही लीन रहो।
(सम्मत्त सहित दंसन) सम्यक्त्व सहित दर्शन (न्यान सहित चरन तवयरन) ज्ञान सहित चारित्र और तप को धारण करना (ममलं ममल सहावं) मैं ममल से ममल स्वभावी हूँ अर्थात् अनादि शुद्ध निरावरण चैतन्य ज्योति ममल स्वभावी ध्रुवतत्त्व शुद्धात्मा हूँ (अन्मोयं न्यान सुग्गए जति) ऐसे ज्ञान का आलंबन लेने, आश्रय करने से सुगति की प्राप्ति होती है।
विशेषार्थ- मनुष्य भव की सार्थकता धर्म साधना कर मुक्ति प्राप्त करने में है, इसमें छोटे-बड़े को मत देखो, यहाँ आयु अवस्था परिस्थिति
नहीं देखी जाती, यहाँ तो "शुभस्य शीघ्रम्" की बात है। जब अपने भाव *जाग जायें तभी उठकर चल देना ही इष्ट हितकारी है। कल क्या होगा ? * इसका भरोसा और पता भी नहीं है । आयु का अंत, आयु का बंध, पाप का
उदय कब आ जाये? फिर चाहते हुए भी कुछ नहीं हो सकता इसलिये ज्ञान स्वभाव का आलंबन रखो और उसी में लीन रहो। अपने शुद्धात्म स्वभाव में परिणमन करना ही हितकारी और इष्ट है, अब यह कषाय, राग-द्वेष के भाव
छोड़ो अपने कोमल सरल सहज भाव रखो, ज्ञान का आलंबन रखो और उसी में लीन रहो।
खबर नहीं है,कोईकी इक पल की। जो कुछ करना होय सो कर लो,को जाने कल की। कलियुग का यह निकाल ,घोर पतन होवे। आयु काय का पता नहीं है, किस क्षण में खोये ॥ जीवन क्षणभंगुर है जैसे,ओसद जल की...जो कुछ...
आत्म कल्याण की प्रबल भावना सहित शुद्ध सम्यक्दर्शन, सम्यज्ञान पूर्वक सम्यक्चारित्र का पालन करना और तप धारण करने में ही मनुष्य भव की सार्थकता है । मैं ममलह ममल स्वभावी शुद्ध चैतन्य शुद्धात्मा हूँ, ऐसे ज्ञान स्वभाव निज स्वरूप का आश्रय करने से सद्गति और मुक्ति की प्राप्ति होती है।
बुद्धिमान मनुष्यों को यह स्मरण रखना चाहिये कि आत्मा को इस KS विशिष्ट मानव योनि की प्राप्ति करोड़ों वर्षों तक देहान्तर करने के बाद हुई
है। चार गति चौरासी लाख योनियों का चक्र अनादि से चल रहा है। इस भव सागर में यह मानव योनि एक नौका की तरह है, धर्म शास्त्र और सद्गुरु कुशल नाविक हैं और इस मानव देह में प्राप्त सुविधायें-१.बुद्धि, २. स्वस्थ शरीर, ३. पुण्य का उदय, यह अनुकूल वायु है जो सही दिशा में ले जा सकती है, यदि इन सुविधाओं शुभ योग के रहते भी कोई मनुष्य अपने आत्म हित (स्वरूप साक्षात्कार, सम्यक्दर्शन) का प्रयत्न नहीं करता तो उसे अपनी आत्मा का घातक समझना चाहिये जिसका परिणाम अनंत दु:ख भोगना पड़ेगा। मनुष्य शरीर उच्च कुल आदि जीवन की परम संसिद्धि है। इंद्रियों से ऊपर मन है, मन से ऊपर बुद्धि है और बुद्धि से भी परे आत्मा है अतएव स्वरूप साक्षात्कार आत्मा की दिव्य महिमा की अनुभूति का लक्ष्य होना चाहिये।
सम्यक्दर्शन आत्मा का एक अपूर्व गुण है। उसके साथ यथार्थ श्रद्धान ही सम्यक् श्रद्धान है, ज्ञान सम्यक्ज्ञान है। सम्यक्दर्शन सम्यक्ज्ञान सहित जो चारित्र व तप है वही सम्यक्चारित्र व सम्यक्तप है । जहाँ इन चारों की एकता है वहीं ममलह ममल स्वभाव है । इसी दशा को स्वात्म लीनता,
स्वात्मानुभव कहते हैं । जो इस ज्ञान स्वभाव का आलंबन करते हैं उनको ११३
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